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विषमता / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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दुपहरिया का धाम,
धधकता देख जेठ का घाम।
सूर्य-किरणों ने लौ से लाल,
क्रोध से वित्फारित विकराल
खोल अंगारों के दृग-द्वार;
जगाए जवालामुखी अपार।
चिता की लोहित लपट समान,
जल रहा आसमान सुनसान।
धधकती धर, उगलती धुआँ,
खदकते ताल-तलैया; कुआँ।
चीरती चली जा रही नील
गगन को ऊपर ऊपर चील।
अलस जड़िमा से भाराक्रान्त,
वन्य पशु ग्रीष्मातप से क्लान्त,
कहीं भी नहीं पथिक का गमन,
तनिक भी नहीं सनकता पवन।

अंगारा-सा घाम,
हाथ में हलस्थाणु को थाम।
रहा वह ऊसर धरती जोत,
उगे संकट के मोथे जोत।
खेत मंे भूखा कमकर एक,
भाग्य का ठँठा मानव एक।
दूर, जग के सौरभ से दूर,
दूर जीवन के मधु से दूर।

छाँह से वंचित नंग-धडंग,
पसीने से लथपथ प्रत्यंग।
एकरस जलता रेगिस्तान,
एकरस छाया-वन छविमान।
एकरस कौंधे की कड़कान।

चल राह फार खोदता गर्त्त,
फाड़ता पर्त्त, पर्त्त-पर-पर्त्त।
चल रहे बैल पातरा बाँध।
चल रहे काँटों का पथ लाँघ
प्रहारों, विपदाआंे को झेल,
रुकावट के ढेलों को ठेल।
चल रहे आगे-सीधे झूम।

सृष्टि का परम अनूठा फूल,
धूप में झुलस फाँकता धूल।
जलाता जीवन का कर्पूर;
तपाता तन-कंचन का नूर।
कि फूले मिट्टी में मुस्कान,
कि फूलें भूखों के अरमान।
कि लहरे अग-जग में उल्लास,
मिटे जीवन-चातक की प्यास।

जानते इस श्रम का तुम मूल्य?
नग्न जीवन का निश्चित मूल्य?
क्षीण रोटी का टुकड़ा एक,
आम की चटनी, मिर्चा एक।
तीन या चार सेर ही अन्न!
इन्हीं से लाखों क्षुधित प्रसन्न!

उगलती दावा-ज्वाल,
ज्येष्ठ की अनल-किरण विकराल।

सरित में मीन तड़फड़ा उठे,
प्राण जीने से घबरा उठे।
प्यास से कण्ठ चटपटा उठे,
घाम से विश्व छटपटा उठे।
दिवस दुपहर का दारुण स्पर्श,
न तन में पुलक, न मन में हर्ष।
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ,
विकल मन-पंछी बैठे कहाँ?
मौन वाणी का मुखर सितार,
भग्न वाणी-वीणा का तार।
खड़े तरु-वृन्द मौन साधार,
मौन अम्बर का गहन प्रसार।
पसर कर अन्ध-विवर में तंग,
पड़े दम साध अवाक् भुजंग।
कुरद नख से मिट्टी को श्वान,
जुड़ाते बैठ छाँह में प्रान।
ढूँढ़ती छाया छाया म्लान,
ढूँढ़ती जीवन का अनुपान।

प्रखर चण्ड आतंक,
ग्रीष्म के शासन का आतंक;
बना खस का बँगला वह एक,
घिरा खस की टट्टी से देख।
लहरते पंखा पंख पसार,
वितरते झिर-झिर मन्द बयार।

सूद का पाला शोषक एक
गाँठ का पूरा बाबू एक।
अहं की आत्म शापित एक,
काठ का पुतला जड़वत एक।
सेज पर चिर सुख में आसीन,
इन्द्रधनुषी चिन्तन में लीन-
‘‘मूलधन एक, ब्याज हो चार,
सृजित, वर्द्वित हो विविध प्रकार।

भरे प्रतिदिन वैभव भण्डार,
प्रदेशों में फैले व्यापार।
द्रव्य जीवन-अर्चन का तन्त्र,
निखिल त्रिभुवन का मोहन-मन्त्र।
द्रव्य ही धर्म-दण्ड दुर्वार,
जगत-जीवन का सुखमय द्वार।
उमड़ जिसमें शत-शत अभिलाष,
खिलाते पतझड़ में मधुमास।
पूर्व के तप से आभासीन,
प्रतिष्ठित धनपति धर्म-धुरीण।
पूर्व के सत्कर्मों से हीन,
दलित जन धन-बल-वंचित दीन।’’
मनोनभ में उसके अभिराम,
कल्पना के सावन घन श्याम।
घुमड़ घिरे करते स्वप्न-विलास,
तपन में फैला मन्दोच्छ्वास।

यह मनुज नहीं, जिसमें मानव,
यह नर, जिसमंे निर्दय दानव।
यह मनुज नहीं, जिसके लोचन,
जो करते दुख का अवलोकन।

यह नर, जिसके दोनों लोचन,
हतप्रभ निद्रित, मोहित क्षण-क्षण।
जग में जो धन-पद से पूजित,
जो मद-मत्सर से आराधित।
युग-धर्म, सत्य से पर वंचित,
नवचेतना से विमुख पतित।
स्रष्टा की कृति की अमिट भूल,
युग-प्रगति-मार्ग के विषम शूल।

(रचना काल: अप्रैल 1945। ‘विशाल भारत’, जून, 1945 में प्रकाशित।)