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विषम संख्याएँ / संतोष कुमार चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
जिन्दगी की हरी-भरी जमीन पर
अपनी संरचना में भारी-भरकम
दिखायी पड़ने वाली सम संख्याएँ
किसी छोटी संख्या से ही
विभाजित हो जाती हैं प्रायः
वे बचा नहीं पातीं
शेष जैसा कुछ भी
विषम चेहरे-मोहरे वाली कुछ संख्याएँ
विभाजित करने की तमाम तरकीबों के बावजूद
बचा लेती हैं हमेशा
कुछ न कुछ शेष
वैसे इस कुछ न कुछ बचा लेने वाली संख्या को
समूल विभाजित करने के लिए
ठीक उसी शक्ल-सूरत
और वजन-वजूद वाली संख्या
ढूँढ़ लाता है कहीं से गणित
परन्तु अपने जैसे लोगों से न उलझ कर
विषम मिजाज वाली संख्याएँ
शब्दों और अंकों के इस संसार में
बचा लेती हैं
शेष की शक्ल में संभावनाएँ
अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते-भिड़ते
बचा लेती हैं विषम-संख्याएँ
आँख भर नींद
और सुबह जैसी उम्मीद।