विष्णुपदी हूँ / संजय तिवारी
राम,
बहुत हारी हूँ
तुम्हारी सरयू को भी
बहुत प्यारी हूँ
मेरी हर सज्ञा
कोई न कोई संस्कार है
मेरी संज्ञा में ही संसार है।
मेरी संज्ञा में ही
तुम भी समाये हो
इसीलिए आज
मेरे तट पर आये हो
देखो न
कितना सयोग है विचित्र
मेरे सामने तुम हो
और विश्वामित्र।
एक पड़ाव तक
अब मैं आ चुकी हूँ
तुम्हे पा चुकी हूँ।
मानसी हूँ
देवसरि हूँ
विष्णुपदी हूँ
तुम्हारी सृष्टि की
हर नयी सदी हूँ।
तुमसे पूर्व से हूँ
तुम्हारे बाद तक रहूँगी
अभी ऐसे ही बहूँगी
वैद्यों के लिए
स्वांस गति
इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना
में से 'सुषुम्ना'
खगोलशास्त्रियों के लिए
आकाश गंगा।
श्रीकृष्ण के लिए
'गीता गंगोदक'
तुलसी के लिए
सुरसरि गंगा
श्रध्दा-भावना और
लोक-प्रतिष्ठा
को देखकर
अपने से मिलाते हुए
आस्था के गीत गाते हुए।
सागर ने
मुझे बहुत सम्मान दिया है
'गंगा सागर' नाम दिया है।