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विसर्जन / राजकमल चौधरी
Kavita Kosh से
हे शब्दक पुहुप-माल,
हे कविता कमल-काल,
भाषा मन्दिरक देवी पर चढ़ि बनि गेलाह तोँ निर्माल
आब तोहर नइँ आवश्यकता, एहि मन्दिरसँ टरि जाह
करइ छी तोहर विसर्जन
हे कल्पने चिर-कुमारि
हे रहस्यमयि, हे प्रेमिके सुकुमारि,
जीवनक सत्यसम्मुख गेलउँ तोहर नेह सभटा हारि
आब तोहर नइँ आवश्यकता, तोँ अप्पन देश घुरि जाह
करइ छी विसर्जन
हे हमर आत्मा, हे कवि
देखबह जुनि निर्वसना निशा छवि
उगि रहल अछि गगनमे ज्योतिक देवता, रवि
आब तोहर नइँ आवश्यकता, निद्रामे मरि जाह
करइ छी तोहर विसर्जन