विस्फोट / दिनेश कुमार शुक्ल
काली नागिन के फन पर जैसे गजमुक्ता
उसकी टिकली चमक रही थी अन्धकार में
बाहर दुपहर के प्रकाश की बर्बरता थी
भीतर कोमल अन्धकार था
जिसमें उसकी आँखों के दो फूल खिले थे
दर्प दया विद्रूप वितृष्णा तिरस्कार की
मिली-जुली-सी दृष्टि भरी थी उन आँखों में
कौतूहल के कॉंटों पर चलता-चलता मैं
इस वर्जित प्रदेश के भीतर भरी दुपहरी
घुस आया था सूरज की भी आँख बचाकर
मुझे देख चौखट पर उसने तुरत बुलाया
‘आओ बच्चा भीतर आओ
वहाँ कहाँ लू-लपट-धूप में खड़े हुए हो’
गुफा-गर्भ में
भीतरवाली तंग कोठरी में बॅंसखट पर
खुले केश बैठी थी उसकी चरणों पर संसार पड़ा था
देहदेश की पटरानी वह-
उसकी कल्पित-केलि-कथा में तपते-तपते
कई किशोरों की तो पूरी रेख फूट आयी थी केवल सात दिनों में
जैसे कंठ फूट आता है शुक-शावक का
जैसे आँखें झुक आती हैं अनुरागी की
सुनता हूँ उस रात ख़ूब सावन बरसा था
जब वह अपने प्रेमी के संग चली गयी थी
माया-मोह मान-मर्यादा गेह-गिरस्ती सब कुछ तज कर,
उसका मर्द गॉंव की डेउढ़ी का लठैत था
भीगे हुए बाँसवन में दावानल तड़पा
आग और बादल में बिजली खुलकर खेली
भासमान विस्फोट की तरह
उस पर प्रेम अचानक फूटा
प्रेम नहीं था एक भॅंवर थी
जिसमें वह बादल को लेकर कूद पड़ी थी
रही घूमती आठ महीने उन देशों में
जिनमें कुछ इस दुनिया में हैं बाक़ी सब हैं दन्तकथा में
मुझे देखती उन सफ़ेद-रक्तिम आँखों में
थोड़ा-सा आलस्य किन्तु उल्लास भरा था
लाज नहीं थी तृप्ति भरी थी
कुछ अतृप्ति की छाया भी थी
और विजय का दर्प भरा था लहराता-सा
बहुत प्यार से उसका पाँच साल का बेटा
उसके पट्टी बाँध रहा था
सात साल की बेटी पुल्टिस बना रही थी
चोट देखकर मैं सकुचाया वो मुस्कायी
बोली ‘मैं पटना हो आयी
देख लिया कलकत्ता मैंने
आसमान भी मैं छू आयी
इसीलिए कुछ थकी हुई हूँ
कुछ दिन में बाहर निकलूँगी
बोलो बच्चा मैं क्या करती
मेरे साथ गया था बादल मुझे छोड़कर वहीं रम गया
मेरा मन अब भी उड़ जाने को करता है’
साँस साधकर उसने थोड़ा पहलू बदला
ऐसा लगा कि जैसे लोहा बजा कहीं जर जैसे तलवारें टकरायीं
कमर करधनी के बजाय जंजीर पड़ी थी
बॅंधी हुई थी वह खूँटे से
खूँटा धरती की छाती पर गड़ा हुआ था
धरती घायल थी लेकिन मुस्करा रही थी-
‘जर-जमीन वालों के ठनगन नहीं पुसाते हम लोगों को
मुझे पता है बड़कों के भीतर का सब कुछ
बड़कों के घर के भीतर तो मुझको उबकाई आती है’
मेरे भयाकाश के जल में डूबा-डूबा
लहरें भरता हुआ वासुकी नाग मन्दराचल को जैसे पीस रहा था
बड़ी कड़ी थी जकड़
तभी मैं चुपके-चुपके लगा सरकने
उल्टे पाँव, दीवार पकड़कर चौखट के बाहर जब आया
मुझे देखकर हॅंसी और रोकर फिर हॅंसने लगी बतसिया
लाखों बन्दिनियों को उस क्षण हमने लोहा होते देखा
जब तक यह दुनिया-धरती है
उस चौखट पर एक अंश मेरा ज्यों-का-त्यों खड़ा रहेगा
मेरे मन की कालकोठरी में बॅंसखट पर
अब भी बिजली तड़प रही है...
अब न रही वो गली न वो घर
वो चौखट जल गयी चिता में
वहाँ खेत जुत गये
नहीं सिंचाई का कुछ साधन लेकिन फिर भी
सबसे गहरी हरी फसल अब भी होती है वहीं
जहाँ काली कोठरी हुआ करती थी
पूछा करती हैं बाजरा ज्वार की बालें
‘कहो बतसिया कहाँ गयी फिर उसके बच्चे, उसका प्रेमी, उसका
पति सब कहाँ खो गये,
इस संसार-सिन्धु में कैसे डूब गये वे
प्रलयकाल की उसी नाव पर वे सवार थे
जिसमें तुम भी तो बैठे थे बीज रूप में।’