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विस्मय तरबूज़ की तरह / आलोक धन्वा
Kavita Kosh से
तब वह ज़्यादा बड़ा दिखाई देने लगा
जब मैं उसके किनारों से वापस आया
वे स्त्रियाँ अब अधिक दिखाई देती हैं
जिन्होंने बचपन में मुझे चूमा
वे जानवर
जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे
और उन्हें इन्तज़ार करना नहीं आता था
और वे पहले छाते
बादल जिनसे बहुत क़रीब थे
समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में
जब पुकारना भी नहीं आता था
जब रोना ही पुकारना था
जहाँ विस्मय
तरबूज़ की तरह
जितना हरा उतना ही लाल।
(1990)