भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विस्मय तरबूज़ की तरह / आलोक धन्वा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तब वह ज़्यादा बड़ा दिखाई देने लगा
जब मैं उसके किनारों से वापस आया

वे स्त्रियाँ अब अधिक दिखाई देती हैं
जिन्होंने बचपन में मुझे चूमा

वे जानवर
जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे
और उन्हें इन्तज़ार करना नहीं आता था

और वे पहले छाते
बादल जिनसे बहुत क़रीब थे

समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में
जब पुकारना भी नहीं आता था
जब रोना ही पुकारना था

जहाँ विस्मय
तरबूज़ की तरह
जितना हरा उतना ही लाल।

(1990)