भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विस्मृति के बोल / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिथिल,
विश्रृंखल,
बहुत बेसुध,
बड़ी बेहाल-सी
लगती नशीली चेतना बेलौस;
जैसे ज़िन्दगी के सब तनाव-कसाव,
पल-पल के दुराव-छिपाव सब
होकर सहज ढीले, बहुत-कुछ साफ़,
तन्द्रा की मदिर बेहोशियों में
खो रहे चुपचाप, अपने-आप l
मैं इस फैलती-सी,
...फैलकर हिलती, थिरक जमती
लचीली-सी सतह पर,
सिहरती अनजान लहरों में
सरकता जा रहा हूँ;
मैं उमड़कर खुद निखरता जा रहा हूँ ...?
एक भारी-सी, अजीब थकान
जिसका अन्दरूनी भार शायद
देह की हर पोर से बंध झूलता है,
-नींद की चादर उढ़ाता है शिथिल-सी बेबसी पर,
ऊँघकर सर झुका लेतीं प्रखर लपटें,
एक जादुई धुआँ बन मिट रही सुधि राह की l
किन्तु इस अवसाद की
रंगीन, गैसीली घड़ी में, कसी ढीली कड़ी में-
यों जग रही है मौन की नगरी
किसी भटकी परी-सी बोलती है-
“ कौन छाया,...कौन है, जो
द्वार सारे खोलती है ?
वह लिये जाती अनोखे मंत्र-बल से
समर्पण के बुदबुदों पर मुझे बिछलाती,
झुकाती हर किसी के लिए, हरती जटिलताएँ,
गुत्थियों की हर नई चट्टान को पिघला रही ?
कौन छाया, कौन है; जो
आग मधु में घोलती है ?”
श्याम छाया से अनाहत श्वेत छाया बोलती है-
“बस, अभी चुपचाप झुकने दो,
मुझे अब टूट गिरने दो अगन्ध गुलाब-सी,
अब तोड़कर तट आप ही निर्बन्ध बहने दो-
अघात सैलाब-सी !”
...तो घूमता ही रहूँ कोई अजनबी या
सवारी के साथ;
शायद युगों का खोया हुआ परिचय मिले,
सुबह से आधी निशा तक का अशेष अभाव
जब तक अलस आँखों में न सिमटे,
घूमता ही रहूँ जब तक सर न घूमे !
अभी जब सोया ज़माना,
हर किसी की खो रही खुद में कहानी,
लुढ़कती जातीं उसाँसों की लसीली गोलियाँ,
है ‘स्लोप’-सा हर भाव का स्वर;
-तभी है रेडियम के तार से उलझी
चली आतीं किसी की सुमुख-रेखाएँ,-
उजलती आ रहीं,
मेरी चमकती चेतना की रात जुगनूदार
ढलती जा रही,
मौन, ढुलती, मूक विस्मृति को
मदीली नींद छलती जा रही l
मेरी चमकती चेतना की
रात जुगनूदार ढलती जा रही l