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विस्मृति / अनिता मंडा

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हरे पत्ते ओढ़ते हैं धीरे-धीरे पीलापन
फिर छोड़ते हैं डाल का साथ
इतने धीरे से
डाल को भी सुनाई नहीं देती
एक भी सिसकी

हवा में
दौड़ते-भागते पत्तों पर
चढ़ जाती है
एक पर्त अवसाद की

विस्मरण.. एक लम्बी प्रक्रिया है
एक क्षण में घटित नहीं होती

कई बार तो
ऋतु परिवर्तन के बाद भी
भीतर समाया रहता है पतझड़
हर किसी से उसकी सरसराहट
चीन्ही नहीं जा सकती