विस्मृति / कुमार अंबुज
पिता के लिए
एक दिन गड्डमड्ड होने लगती हैं चीज़ें, क्रियाएँ,
नाम, चेहरे और सुपरिचितताएँ
फिर तुम स्मृति का पीछा करते हो
जैसे बचपन की उस नदी का जो अब निचुड़ गई है
और हाँफते हुए समझने की कोशिश करते हो
कि विस्मृति ही अन्तिम अभिशाप है या कोई वरदान
कुछ याद करना चाहते हो तो एक परछाईं-सी दिखती है
जो विलीन हो जाती है किसी दूसरी परछाईं में
इस अनुभव के आगे सारे दुख फीके हैं और बीत चुके हैं
दूर कहीं तुम उनकी तरफ़ देखकर मुस्करा सकते हो
लेकिन उनके मुखड़े याद नहीं आते
यही असहायता है, इतनी ही शेष रह गई है ताक़त
ईर्ष्याएँ याद नहीं आ रहीं, क्रोध के सूर्य अस्ताचल हुए
प्रेम के चन्द्रमा डूब गए, वासनाएँ जारी हैं
जाने कैसे बची रह गई है स्पर्श की आदिम स्मृति
किसी को न पहचानने से अब कोई अपमानित नहीं होता
अगर पहचान लो तो वह अप्रतिम ख़ुशी से भर जाता है
कोरी हो चली स्लेट पर लिखी जा रही हैं नई इबारतें
और सबक हैं कि याद नहीं रह पाते ।