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विस्मृति / शिव शंकर सहाय ‘सिद्धार्थ’
Kavita Kosh से
राउर अंतस् से फूटत सौंदर्य
सदियन से खींचले बा
हमरा मन-प्राण के।
भिनसहरा के उजास
खिलत कुसुम-कली
रक्तिभ कपोलन के आभा
मधुमय मंजरन सम
विस्मृति के दुआर प
दस्तक देले बा बार-बार।
प्राचीरन से बन्हाइल हम
अपने नियति के ना पहिचान पइनीं।
सपनन के सुहावन पाश
हमरा सुकोमल मन के
बन्हलहीं रहे
अतना मजबूती से
कि हम
आपन जागरण के अर्थो भूला गइनी।
राउर हो जाये के अतृप्त लालसा
आ
रउरा में विलीन कर देबे के
चीर पीपासा,
भावना के भँवर में पड़ल
अपना के स्नेह प्राचीरन में
सुरक्षित रख लेबे के
हमार विवशता के
बल देले बा.............