वीरकुम्भा खण्डकाव्य से / भूपराम शर्मा भूप
रण-पुंगव कुम्भा जी! तुम थे
अद्भुत, अद्वितीय, असाधारण
इस यश में सदा तुम्हारा ही
रस-रक्षक रुधिर रहा कारण
तुम मातृ-भक्त तुम पितृ-भक्त
तुम भ्रातृ-भक्त तुम देश भक्त
तुम थे केवल एक ही किन्तु
हो गये अनेक में विभक्त
चित-चोर चराचर-चिर-चर्चित
चैतन्य-चित्त, चातुर्य-चित्र
मानवता-मस्तक, महामहिम
ममता-मोहक, माधुर्य-मित्र
संचरणशील, संतरणशील
संभरणशील, संवरणशील
खिल उठता देश तुम्हारे यदि
सब हो जाते अनुकरणशील
जातीय-जागरण-जागरूक
जग-जीवन-ज्योति स्तम्भ ज्येष्ठ
बलिदानी परम्परा में तुम
निकले सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ
है देख तुम्हारे साहस को
आश्चर्य-चकित प्रत्येक वर्ग
किस भांति तुम्हारा लिख पाऊँ
उत्सर्ग-पर्व, संसर्ग-सर्ग
भव्येश! भाव-भूषण तुमने
सुधि कर भूली भावुकता की
अविलम्ब-अचानक-अकस्मात
सीमा छूली उत्सुकता की
होते तुम-से यदि वीर आज
होते न साम्प्रदायिक विषाद
हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दी-उर्दू
मन्दिर-मस्जिद आदिक विवाद
तुम-से दानी-बलिदानी की
यदि रहतीं बनी तपस्यायें
पंजाब-असम-कश्मीर आदि-
की होती नहीं समस्यायें
तुम-से यदि होते दृढ़-प्रतिज्ञ
होती न किसी की मनमानी
देखते न आँख उठाकर भी
हमको चीनी-पाकिस्तानी
तुम-से भट के सम्मुख करते
शठ-शशक-श्रृगाल न सिंहनाद
दो दिन भी नहीं पनप पाता
अपहरण-वाद, आतंक-वाद
अन्धेर-पूर्ण यह पक्षपात
अब कैसे कब तक सहा जाय
पाखंडी, प्रजा- पीड़कों को
पल-पल पर पीड़ित कहा जाय
निष्करुण, निरंकुश, निडर बने
जो पाकर अनुचित पक्षपात
कर रहा प्रशासन उन पर ही
अनुकूल उन्हीं के दृष्टि-पात
कर सके न अभिनन्दित तुमको
कुम्भा जी! हम सुमनावलि से
कर रहे आज कुछ सम्मानित
शोकाश्रु-शब्द श्रद्धांजलि से