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वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो / सिराज अजमली

वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो
हम-साए में खड़ी है अजल जागते रहो

जिस पर निसार नर्गिस-ए-शहला की तम्नकत
वो आँख इस घड़ी है सजल जागते रहो

ये लम्हा-ए-उम्मीद भी है वक़्त-ए-ख़ौफ भी
हासिल न होगा इस का बदल जागते रहो

जिन बाज़ुओं पे चारागरी का मदार था
वो तो कभी के हो गए शल जागते रहो

ज़ेहनों में था इरादा-ए-शब-ख़ूँ कल तलक
अब हो रहा है रू-ब-अमल जागते रहो

जिस रात में न हिज्र होने वस्ल ‘अजमली’
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जागते रहो