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वीरान ख़्वाहिश / रियाज़ लतीफ़
Kavita Kosh से
मिरे अंदर
घना जंगल
घने अंजान जंगल में
लचक शाख़ों की वहशत में
शजर के पत्ते पत्ते पर
मुनक़्क़श अन-गिनत सदियाँ
ज़मानों के बदन उर्यां
अज़ल की ज़द, अबद की हद
खंडर, मीनार और गुम्बद
रवाँ ला-सम्त तहज़ीबें
नए इम्कान की साँसें, कभी अपनी गिरफ़्तों में
गिरफ़्तों से कभी बाहर
लहू, आफ़ाक़, इक दरिया
बदन लम्हात का सहरा
जहाँ दुनिया भटकती थी
वो सब ख़ामोश और तन्हा
इसी सहरा के सन्नाटे को नग़्मों से भिगोना है
कहीं दूर जा कर
ख़ुद को ख़ुद ही में डुबोना है
किसी दिन अपने जंगल से लिपट के खुल के रोना है