वीर बालक हकीकत / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
सीमित हो ज्ञान भले, श्रद्धा थी महान किन्तु
आन हेतु प्राण हँस-हँस के लुटा गया।
वीर था हकीकत में, मृत्यु को लगाया कंठ,
बालक था, राह किन्तु बड़ो को दिखा गया॥
जँचता रहा वो खरा-खरा उतना ही बन्धु!
जितना परीक्षा की कसौटी पे कसा गया।
मरा नहीं, जी गया, कमा गया सुकीर्ति वह,
जग में सदा को नाम अमर बना गया॥
लेकर कितने ही जन्म यहाँ, आकर चुपचाप चले जाते।
सब काल बली के द्वारा, छोटे और बड़े कुचले जाते॥
कुछ औरों को छलते, कुछ हैं औरों से स्वयं छले जाते।
कुछ स्वर्णिम अवसर को खोकर हैं दोनों हाथ मले जाते॥
कुछ भाग्य-भरोसे बैठे जीवन भर तकते रह जाते हैं।
है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें अक्सर सब बह जाते हैं॥
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो रचते हैं इतिहास नया।
जिनके पौरुष से मिल पाता जनजीवन को उल्लास नया॥
ऐसे वीरों के बल पर ही जीवित समाज रह पाता है।
ऐसी विभूतियों से स्वदेश का सुयश-केतु फहराता है॥
सींचा करते निज शोणित से जो मृत समाज की क्यारी को।
जो नवजीवन दे जाते हैं मानवता की फुलवारी को॥
ऐसे वीरों की अमर कथा युग की संस्कृति बन जाती है।
जिसके द्वारा भूली जनता निर्देश युगों तक पाती है॥
उस वीर हकीकत की गाथा यह देश न हर्गिज़ भूलेगा।
जब-जब उसकी सुधि आयेगी जन-जन गौरव से फूलेगा॥
सच्चा हिन्दुत्व पुजारी था वह देश-धर्म का दीवाना।
तन को केवल परिधान, अमर था आत्मा को उसने जाना॥
था तो बचपन का समय, सरल था मन, तन भी अति कोमल था।
निश्छल मानस में भरा हुआ लेकिन अगाध श्रद्धा बल था॥
काज़ी-मुल्ला सब हार गये, वह डिगा न अपने निश्चय से।
आतंकित कभी न हो पाया, कष्टों से और मरण-भय से॥
कर लिया मौत से आलिंगन, कल कीर्ति कमा कर चला गया।
हँसता-हँसता प्रणहित प्राणों की भेंट चढ़ा कर चला गया॥
था तो बालक पर बड़े-बड़ों को सबक सिखा कर चला गया।
जो कभी नहीं बुझ पायेगी, वह ज्योति जला कर चला गया॥
तन-सुमन चढ़ा बलिवेदी पर निज धर्म निभा कर चला गया।
कहने को तो मर गया, स्वयं को अमर बना कर चला गया॥
उस बलिदानी बालक का वह बलिदान दिवस जब आता है।
हर छोटे और बड़े का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है॥