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वृंदावन रस काहि न भावै / जुगलप्रिया
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वृंदावन रस काहि न भावै।
बिटप वल्लरी हरी हरी त्यों गिरिवर जमुना क्यों न सुहावै॥
खग मृग पुंज कुंज कुंजनि मैं श्रीराधाबल्लभ गुन गावै।
पै हिंसक बंचक रंचक यह सुख सुख सपने में लेस न पावै॥
धनि ब्रजराज, धनि वृंदावन धनि, रसिक अनन्य, जुगुल वपु ध्यावै।
जुगल प्रिया जीवन ब्रज सांचो तनरु वापि मृग जल को धावै॥