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वृक्ष. / केशव
Kavita Kosh से
तुम मेरी खिड़की पर
झुके हुए
मौन भिक्षु
खड़े हो मेरे जन्म काल से
तुम्हारी टहनियाँ एक दिन
अकस्मात खिड़की फलाँग
हरी हुईं
मेरे अंदर आकर
फलते गये तुम
जड़ें होती गईं गहरी
तब मैं तुम्हें छोड़ चला गया
एक दिन
पर मेरे साथ-साथ रहे तुम
और आज एक अरसे बाद
लौटा हूँ जब
तो देखता हूँ
मेरी खिड़की झाँकती
एक अंतरंग सचरी वह डाल
काट डाली है किसी ने
और तुम आहत दृष्टि से
टोह रहे हो
कमरे का मौन
जो होता था मुखर कभी
तुम्हारे संग
जहाँ सौंपा था मुझे अपना
क्षण-क्षण में उगना तुमने
पर दरिया पर बाँध नहीं बँधता कभी
कटी हुई डाल
फिर-फिर उग आती है
अपने अंदर से ही