वृक्ष से मिलने की तड़प / सुरेश दलाल / मीना त्रिवेदी
मेरी काया में सोया एक पशु कब जाग जाए, कहा नही जाता ।
मुझ में समाया एक शिशु कब खिले या मुरझाए, कहा नही जाता ।
मेरे भीतर एक अंगारा है, वो और प्रज्ज्वलित भी हो या
ऐसा भी हो कि अचानक उस पर राख ही छा जाए, कहा नही जाता ।
सुइकी नाक से गुज़रते धागे जैसे साल गुज़र जाते हैं
कभी सीधे सीधे तो कभी गाँठें भी पड़ जाती हैं ।
सुरंग से गुज़रती ट्रेन की तरह गुज़रने वाले साल अन्धेरे से
आदी हो जाते हैं अन्धेरे के
फिर टनल ख़त्म होने पर उजाला ही हो तो अच्छा ।
वृक्ष कोई दिख जाए तो सुकून मिले फिर से वह ।
चाहे हो पतझड़ का ही वह वृक्ष यानी वॄक्ष । उसके मौसम से मुझे
कुछ सरोकार नही। बसन्त के वैभव की कोई आस नही ।
मैं रात-दिन घिरा हूँ बढ़ते वृक्ष से बिछड़ने की तड़प से ।
गर कहीं वृक्ष मिल जाए तो जी लूँ हलका-सा ओस की बून्द-सा
ओस की बून्द नहीं तो, बह ही लूँ वृक्ष के पास से गुज़रती नदी-सा ।
मूल गुजराती से अनुवाद : मीना त्रिवेदी
लीजिए, अब यही कविता मूल गुजराती भाषा में पढ़िए
સુરેશ દલાલ
मारी कायामां सूतेलुं एक पशु क्यारे जागी जशे ए कहेवाय नहीं ।
मारामं समायेलुं बाळक क्यारे विकसे के करमाय, ए कहेवाय नहीं ।
मारी भीतर एक अंगारो छे,वधु प्रज्जवळे पण खरो अथवा
एवुं पण थाय के अचानक एना पर राख राख वळी जाय ।
सोयना नाकामांथी दोरो नीकळे एम वरसो नीकळतां जाय छे
क्यारेक सीधे सीधा तो क्यारेक क्यांक गांठ पण वळे छे ।
टनलमांथी पसार थती ट्रेननी जेम पसार थतां वर्षो अंधाराथी
टेवाइ गया छे अने टनल पूरी थाय त्यारे अजवाळुं होय तो सारुं ।
आंखने वृक्ष देज्हाय तो कैंक शाता वळे, पछी भले ए
पानखरनुं होय. वृक्ष एटले वृक्ष. एनी मोसमनी मने
परवा नथी. वसंतना वैभवनी कोइ लालसा नथी
मने तो रातदिवस वळग्यो छे मूलमांथी ऊगतो वृक्ष - झुरापो ।
जो क्यांक वृक्ष मळी जाय तो हुं हळुहळुझाकळ जेम जीवी लऊं ।
झाकळ तो कहेवानी वात बाकी वृक्षनी पडखे नदी थईने वहेवुं छे ।