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वृक्ष — तर्क और करुणा के बीच / पूनम चौधरी

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वृक्ष —
सदैव रहा स्थितप्रज्ञ,
निश्चल,
पर निःस्पंद नहीं।

वह
एक नियति है —
जो बीज से नहीं,
संघर्ष और अस्वीकृति से जन्मा।

उसने चुना बढ़ना,
पर माँगी नहीं कोई गति।
फल, फूल, औषधियाँ दीं,
बिना श्रेय की आकांक्षा के।
आश्रय दिया,
बिना किसी आभार की अपेक्षा के।


तर्क ने कहा:
“विकास ऊर्ध्वमुखी हो।”
पर वृक्ष बढ़ा
उतना ही,
जितनी जड़ें भीतर उतरीं।

उसने साधा
संतुलन का मार्ग—
एक मौन विद्या,
संवेदना में लिपटा विवेक।


उसमें
भव्यता का प्रदर्शन नहीं,
पर जो दिखता है,
वह सतह पर नहीं रुकता।
और जो नहीं दिखता,
वही उसे स्थिर करता है।

हर वर्ष
वह त्यागता है पत्तियाँ;
क्योंकि उसका पतझड़
अंत नहीं,
एक अंतराल है —
नवजीवन की प्रतीक्षा का।

हर गिरा पत्ता
एक मौन स्वीकृति है —
कि त्याग के बिना
संभव नहीं सृजन।

मनुष्य ने
बाँध दिया अस्तित्व को उपयोगिता से।
वृक्ष रहा मौन —
स्वीकारता रहा परिवर्तनों को,
क्योंकि
फल देना उसका धर्म था,
अर्थ और न्याय
उसके उत्तरदायित्व नहीं थे।

उसने नहीं रचे मिथक,
पर तमाम मिथक
उसी की छाया में पले-बढ़े।
कल्पवृक्ष, अश्वत्थ, बोधिवृक्ष —
तीनों प्रतीक हैं
मनुष्य की उन कामनाओं के,
जो त्याग के बिना
पाना चाहती हैं स्थायित्व।


वृक्ष
हर क्षण
अपनी संभावित मृत्यु में जीता है,
फिर भी
हर ऋतु में निभाता है नई भूमिका।

यह तर्क नहीं,
जिजीविषा है।
यह इच्छा नहीं,
बोधमयी करुणा है।


जब वह गिरता है,
तो केवल स्थान नहीं छोड़ता —
बल्कि छोड़ जाता है
एक जीवित साक्ष्य,
कि स्थायित्व
उत्सर्ग और मौन में पलता है।
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