वृत्तियों की वर्तिका तब जल उठी! / राधेश्याम ‘प्रवासी’
जब पड़ा स्नेह संचित नेह का
वृत्तियों की वर्तिका तब जल उठी!
लौ लगी ऐसी कि लौ ज्योतिर्मयी
हो उठी उर के सघन तम-तोमपर,
कामनाओं के पतंगे जल मरे
कल्पना पंछी उड़ जले व्योग पर,
सत्य का आभास कुछ ऐसा हुआ,
साधना की सुप्त कलिका खिल उठी !
निष्प्रकंपित दीप की उस ज्योति से
अन्ध को पी कर धुवाँ उठने लगा,
आँधियाँ बिचलित हजारों हो गई
मुक्त हो आलोक भी हँसने लगा,
स्वर्णवर्णी रश्मि बन अन्तर्मुखी,
हो स्वयं अन्तर्जगत में धुल उठी!
भेदती उतरी किरन वह तीर-सी
उस अगम तल के गहन आवर्त में,
फट गये जड़ राशि के दृढ़ आवरण
व्यक्त बन, अव्यक्त था उस गर्त में,
प्ररेणा थी पथ-प्रदर्शक कौन-सी,
ग्रान्थि जड़-चेतन जगत की खुल उठी!
मैं वहाँ था शान्ति के साम्राज्य में
सुन्दरम-सत्यं-शिवं की गोद में,
थे प्रवाहित मधु सुधा के स्रोत भी
चेतना छहरी हुई थी मोद में,
किन्तु वह था कौन चिर परिचित वहाँ,
देख कर जिसको अमरता मिल उठी!
मेरी मुस्कानो में चेतना तुम्हारी है,
मेरे क्रन्दन में भी वेदना तुम्हारी है,
मैं डूबा हूँ इस लिये ध्यान सागर में
मेरे चिन्तन में आराधना तुम्हारी है!
तुम मुझे भुला कर भुला नहीं पाओगे,
तुम मुझे विदा कर बुला नहीं पाओगे,
ठुकराओ मत अर्चना दीप बुझ जायेगा
तुम इसे बुझा कर जला नहीं पाओगे!
बीन तेरी है मगर गीत मैं गाने बैठा,
तेरी लय में हूँ अपने स्वर को मिलाने बैठा,
तेरे भावों के जगत में अपने
आज सपनो को हॅँू साकार बनाने बैठा!