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वृषभ / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

सटाक की गूँजती है आवाज
भेदती वातावरण
लौट जाते हैं सुरीले स्वर
नाचते युग्म, लहरों की थाप पर
अपने उद्गम की ओर
अरे ये तुम हो
इस भागती जिंदगी के साथ
रह गये सुरताल मिलाने से
इसीलिए चाबुक सरसराता है
तुम्हें दौड़ने को उकसाता है
वो देखो,
वो देखो, सहोदर खड़ा सींग तान
बीच सड़क मंे, क्योंकि बची है वही जगह
चलने और चरने को
पृथ्वी नहीं उठानी पड़ती अब
कहलाता है चाहे आवारा, पर है आजाद
सीमाओं से परे, सुविधाओं से दूर
आने-जाने वाले चाहे रहे घूर
पर उसकी भी अपने दायरे में एक जगह है
इस धरा पर उसके होने की कुछ वजह है।