वेणुगीत / बुद्धिनाथ मिश्र
मैं तो थी बंसरी अजानी
अर्पित इन अधरों की देहरी ।
तेरी साँसें गूँजीं मुझमें
मैं हो गई अमर स्वर-लहरी ।
जग के लिए धरा सतरंगी
मेरे लिए सिर्फ श्यामल है
छूतीं मुझे विभोर उँगलियाँ
जिस क्षण, वही जनम का फल है ।
स्वीकारे यदि तू ममतावश
तो मैं आज निछावर कर दूँ
बँसवट की वह छाँह निगोड़ी
मुकुटों की यह धूप सुनहरी।
जाने क्या तुझमें आकर्षण
मेरा सब कुछ हुआ पराया
पहले नेह-फूल-सा मन
फिर पके पान-सी कंचन-काया ।
पुलकित मैं नैवेद्य बन गई
रोम-रोम हो गया अर्घ्य है
नयन-नयन आरती दीप हैं
आँचल-आँचल गंगा-लहरी ।
मैं तेरी संगिनी सदा की
साखी हैं यमुना-वृन्दावन
यह द्वारका नहीं जो पूछे
कौन बड़ा है -- घन या सावन ?
पल दो पल का नहीं, हमारा
संग-साथ है जनम-जनम का
तू जो है बावरा अहेरी
तो मैं भी बनजारिन ठहरी ।