वेणुगोपाल, आदिकवि, 1942–2008 / असद ज़ैदी
कुछ वक़्त तक तुम हमारे कवि थे, फिर नहीं थे
कुछ वक़्त तक हम तुम्हारे ऋणी थे, फिर नहीं थे
हैदराबाद किशनबाग़ 19-5-31 तुम्हारा पता था
दूर बैठे कई लोगों ने इसी भाँत जाना उस शहर को जहाँ
औरों के थे बदरीविशाल हमारे थे वेणुगोपाल
मक़ाम 1967 से मक़ाम 1975 की तरफ़ कोई सवारी
दौड़ती है बेढब चाल से, उसकी खटर-पटर
कहती है – वेणुगोपाल! वक़्त के
उस टुकड़े की गूँज और धमक में यह लफ़्ज़ शामिल है
किसी तहख़ाने में लकड़ी का भारी किवाड़
चरमराता है – वे … नू … पुकार बीच में ठहर जाती है
है कोई कि पूरा कर सके
एक कलमे की तरह उसे सन 2008 के सितम्बर मास में
यह कोई अजीब बात नहीं कि बीसवीं सदी में आठ-दस साल
तुमने जिस बैरिकेड को सम्हाला उस पर लिखा था – क्रान्ति
आगे की तख़्तियों पर था : मास्टर, यात्री, अतिथि, आवारा
फिर इक्कीसवीं सदी में एक जीर्ण हनुमान मन्दिर के
ग़रीब से हनुमान के ग़रीबतर पुजारी तुम बनकर गुज़र करने लगे
जाने से पहले तुमने बेरोज़गारी के कई अर्थ ईजाद किए
बताया कैसे एक आदमी के काम उसे बनाते रहते हैं बेकाम
कि काम करता हुआ आदमी सबसे ज़्यादा
नाकामी पैदा करता है आज पूँजी के अन्धेरे में
किसी को तुम्हारा ख़याल न रहा किसी को रहा थोड़ा सा
एक टाँग भी तुमसे हुई जुदा कुछ मलाल के साथ
अन्त में तुम्हारा वज़न रह गया सिर्फ़ 30 किलो
तुम्हारी जवानी में हर क़स्बे हर शहर से गुज़रती थी
एक विभाजक रेखा, वह रेखा ही मिट सी गई
तुम्हारे मित्र भी क्या करें उन्हें पता नहीं अब वे
उधर हैं या इधर
तुमने नहीं देखी होगी कृतघ्नों की कृतज्ञता
उनमें वह होती है होती है बिल्कुल
कैसे होती है और कहाँ यह वे भी नहीं जानते
– यही तो उनकी सज़ा है
रघुवीर सहाय से तुम 5 साल वरिष्ठ होकर मरे
प्रेमचन्द से 10 साल
मुक्तिबोध से पूरे 19
उन तीनों ने नहीं देखी अपने अपने युग की अन्तिम हार
उन्हें पता ही नहीं चला हार इतने नज़दीक है कि पुकारने भर से
फ़ौरन पास चली आएगी
तुमने देखी एक लम्बी खिंचती जाती अटूट हार इतनी हार
कि कोई भी उसका आदी हो जाए उसपर आश्रित हो जाए
वह अच्छी लगने लगे और कुल मिलाकर
उसे जीत की तरह दर्ज करने की प्रथा आम हो जाए
61-56-47-66 ये संख्याएँ
इनमें दिखायी देता है पिछली एक सदी के कवि-नागरिकों की
उम्र और नसीब का लेखा
यह शहर हैदराबाद में किसी का पता भी हो सकता है।
(सितम्बर 2008)