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वेदना का जाल / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

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पूछकर तुम क्या करोगे
अब हमारे हाल

उम्र आधी मुश्किलों के
बीच में काटी
पेट की आग डूबे
दर्द की घाटी
वक्त चाबुक खींच लेता
रोज थोड़ी खाल

कब हमें मिलती यहाँे
कीमत पीसने की
हो गई आदत घुटन के
बीच जीने की
कम उमर में पक गए हैं
खोपड़ी के बाल

हवा खाते हैं जहर के
घॅंूट पीते हैं
रोज मरते हैं यहाँ
हम रोज जीते हैं
बुन रही मकड़ी समय की
वेदना का जाल

दर्द को हम ओढ़ते
सोते बिछाते हैं
रोज सपना दूर तक
हम छोड़ आते हैं
जी रहे अब तक बनाकर
धैर्य का हम ढाल