वेदना के गीत / संगम मिश्र
आज दशकों का पुराना,
घाव फिर से लहलहाया।
मन पुनः उद्विग्न होकर,
वेदना के गीत गाया॥
कष्टकर कण्टकित पथ में,
दूर तक फैला अँधेरा।
हर कदम पर व्याधियों ने,
शत्रुओं-सा पन्थ घेरा।
एक रत्ती स्नेह भी जब,
हो गया दुर्लभ जगत में।
रो पड़ीं सम्भावनायें,
जानकर दुर्भाग्य मेरा।
रात दिन विपदाग्नि में जब,
प्राण पञ्छी छटपटाया।
मन पुनः उद्विग्न होकर,
वेदना के गीत गाया॥
क्षुब्ध रहता मन निरन्तर,
देखकर असमानतायें।
सर्वथा सम्पन्न केवल
लोक में सम्मान पायें।
विश्व की उत्पत्ति में यह
कष्टदायक दोष कैसे?
एक को समृद्ध जीवन,
दूसरे को वेदनाएँ।
लोक का यह चित्र मुझको
जब न किंचित रास आया।
मन पुनः उद्विग्न होकर,
वेदना के गीत गाया।
कौन है? जो मौन, मुझको,
यह भयानक शाप देकर।
मान लूँ, यदि पूर्वकालिक,
कोप है मुझ अधमरे पर।
नाथ! किंचित द्रवित होकर,
मुझ अधम को यह बतायें।
दण्ड पिछले जन्म का क्यों,
भोगना नव जन्म लेकर?
कौन-सा यह न्याय? भगवन!
जब न अबतक जान पाया।
मन पुनः उद्विग्न होकर,
वेदना के गीत गाया॥