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वेश्यालय की ज़िन्दगी / बाल गंगाधर 'बागी'

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इन सुर्ख़ लबों की वादी में
बदमस्त बहारें कैसी हैं?
उजड़ी जिनकी दुनिया सारी
इच्छायें उनकी कैसी हैं

अफसोस नहीं है मरने की
अफसोस है अपनी हालत पर
परवाह नहीं है इज्जत की
जो लुटती है आंसू भर-भर

स्नेह दूध माँ का आंचल
पापा के गोद में किलकारी
नन्हा भाई माँ बहनों की
कर याद मैं रोती दुखियारी

तन्हाई में आंसू बनकर
जब याद हैं आते रह रहकर
संग फूलों के कांटे बनकर
यादों की हवा के झोकांे पर

उल्फत की नज़र से न देखे
भूखे वहसी इस जोबन को
मैं सह लूंगी कोई न छुये
मेरी उन नन्हीं बहनों को

मैं व्यथा कहूँ किस मानव से
जो कभी न मेरी बतलाये
घर वाली उसकी बन जाऊं
दिल में रख ले न बिसराये

मछली-सी निकल घर से अपने
हूँ राग विरह की जब गाती
मर्दों की नोटों पे रोकर
इतिहास सिसक कर दुहराती

है धैर्य तेरा निर्मल कितना
चातक विधवा नारी जैसे?
इस व्यथा से गहरा क्या होगा?
जो कहे कोई मानवता से

तू गंदी है तेरी इज्जत क्या?
तेरा काम यही है ये जाना
कोई कहे करे खुद के घर मंे
फिर पूछूं उससे अफसाना

क्यों आये तरस उन लोगांे को
जो कोठे पर मुझे उठा लाये
उकसाये मेरी वह बांह पकड़
न करने पे बस कोड़े खाये

रेप पे किसी के हर लोग सोचते हैं
पुलिस फोर्स मिलके रेपिस्ट खोजते हैं
मेरा रेप रोज ही होता है यहाँ पर
जिसे लोग मिलकर हर रोज लूटते हैं

शोषित पिछड़े लाचार घरों से
गुण्डों के साथ आई उठा के वहाँ से
जिसे लोग करते हैं खूब तार-तार
क्यों नहीं सुनती है कोई सरकार?

मर्यादा बिकती है कोठों व सड़क पर
न मीडिया बोलती न सरकार को खबर
रेप होता है सरेआम बस्तियों में अक्सर
क्यों डूबती है अस्मिताएं ऐसे मरकर