वेश्या / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'
एक ज़िन्दगी अचानक ही थम-सी गई।
सोच कर कुछ वह जैसे सहम-सी गई।
क्या हकीकत से वह अपने अनजान थी?
जो न सहना था हँस कर वह सब सह गई।
हाँ मैंने सुनी उसके टूटन की व्यथा,
उसके सीने में कुछ धड़क कर कह गई।
उसके माथे की झुर्रियों ने कुछ कहा।
कुछ तो उसके लहजे की अदब कह गई।
अधखुले बदन से उसके लिपटी लिबास,
बाकी था जो कहना वह सब कह गई।
एक ज़िन्दगी अचानक ही थम-सी गई।
सोच कर कुछ वह जैसे सहम-सी गई।
उसके मुस्कान में था एक बचपन छिपा।
उसके आँखों में यौवन की कुछ बात थी।
आज कुछ नए लोग थे, कुछ नई बोलियाँ।
जिस्म था फिर वही और वही रात थी।
फिर से होंठो पर चमकती लाली वही।
चाल ऐठन भरी, फिर से मतवाली वही।
यूँ सलीके से माथे पर कुमकुम लगा,
फिर जख्म गहरे वही, फिर सवाली वही।
चीथड़े से हुस्न को टांकती हर दफा।
आस है कुछ सभी से और सभी से वफ़ा।
हमने देखा नहीं उसको तड़पते हुए।
मजबूरियों के हाथो में बिकते हुए।
हमने रौंदा है यहाँ बाग़ के फूल को,
घाव खरोंचे है हमने रिसते हुए।
लिखी नज़्म अंधेरे की लुटती शमा पर।
एक कहानी पन्नो पर सिमटती गयी।
छीना जहर को जमाने से जिसने,
घुट घुट के जहर वह पीती गयी।
एक ज़िन्दगी अचानक ही थम-सी गयी।
सोच कर कुछ वह जैसे सहम-सी गयी।