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वे अब वहाँ नहीं रहते / कुमार अनुपम
Kavita Kosh से
चिट्ठियाँ जिनका तलाश रही हैं पता
वे अब वहाँ नहीं रहते
अखबारों में भी नहीं उनका कोई सुराग
सिवा कुछ आँकड़ों के
लेकिन अब भी
सुबह वे जल्दी उठते हैं
म्यूनिसिपलिटी के नलके से लाते हैं पूरे दिनभर का पानी
हड़बड़ाहट की लंबी कतार में लगकर
बच्चों का टिफिन तैयार करती पत्नी
की मदद करते हैं अखबार पढ़ने
के मौके के दरम्यान चार लुकमे तोड़ते हैं भागते भागते
देखते हैं दहलीज पर खड़ी पत्नी का चेहरा
बच्चों को स्कूल छोड़ते हैं
और नौकरी बजाते हैं दिनबदिन
ऑफिस से निढाल घर की राह लेते हैं
कि एक धमाका होता है सरेराह... फिर... कुछ नहीं...
वे अपनी अनुपस्थिति में लौटते हैं।