भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वे कहते हैं / रमेश आज़ाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे कहते हैं
बुन रहा हूं धोती
पर बुना जा रहा होता है ध्वज,
वे कहते हें
बुन रहा हूं चादर
पर बुनी जा रही होती है रामनामी।
वे उपेक्षित कबीरपंथी भी जुलाहे नहीं
कपड़ा मिल के मालिक हैं,
वे
कुछ भी बुन सकते हैं
बुनवा सकते हैं।
बुनना-बुनवाना
पेशा है उनका
अपनी भूख के लिए बुनकर
सबकी भूख
वे चढ़ जाते हैं
गुम्बद पर
ध्वजा लिए
रामनामी ओढ़े
जय-जयकार गूंजती है
दिग-दिगंत में
किसी की बेटी-रोटी की नहीं
राम, बाबर की नहीं,
दिल्ली की राजगद्दी के लिए!...
अवतारधारी पुरुष हैं वे
उपेक्षित कबीरपंथी जुलाहे नहीं।