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वे कुछ भी कर सकते हैं / विजय कुमार देव

कितनी फुर्ती में आते हैं
चीते की तरह।
चिलचिलाती धूप में
सार्वजनिक प्याऊ की तरफ़
या
कड़कड़ाती ठण्ड में
लपकते हैं जैसे अलाव की तरफ हम।
आ जाते है
जादूगर जैसे
आपकी दुनिया में सेंधमारी करने वे।

आ जाते हैं
देश को बाज़ार करने
अटूट साँस वाले कबड्डी खिलाड़ी की तरह।
फुर्ती में बना देते हैं
मानवता को विज्ञापन
उतार देते है
भाषा के वस्त्र
दबा देते हैं
कंठो में ही शब्द
आदमी को बनाते है शेयर।
आते हैं बैसाखी लेकर
छीनकर एक दिन वह सहारा
हँसते हैं वे अपनी हँसी।

देखना,
झपटकर बच्चों के खिलौने
नदारत हो सकते है।
फुर्ती में आने वालों पर नज़र हो दुरुस्त
फुर्ती में आकर वे कुछ भी कर सकते हैं।।