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वे ख़ामख़ाह हथेली पे जान रखते हैं / नूर मुहम्मद `नूर'
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वे ख़ाम-ख़्वाह हथेली पे जान रखते हैं
अजीब लोग हैं मुँह में ज़ुबान रखते हैं
ख़ुशी तलाश न कर मुफ़लिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहाँ हुक़्मरान रखते हैं
यहँ की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहाँ ईमान फक़त बे-ईमान रखते हैं
चबा-चबा के चबेने-सा खा रहे देखो
वो अपनी जेब में हिन्दोस्तान रखते हैं
ग़मों ने दिल को सजाया, दुखों ने प्यार किया
ग़रीब हम हैं मगर क़द्रदान रखते हैं
वे जिनके पाँव के नीचे नहीं ज़मीन कोई
वे मुठ्ठियों में कई आसमान रखते हैं
सजा के जिस्म न बेचें यहाँ, कहाँ बेचें
ग़रीब लोग हैं, घर में दुकान रखते हैं।
शब्दार्थ
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