वे जो अकेले सोते हैं / जोशना बनर्जी आडवानी
वे जो अकेले सोते हैं
दरक जाते हैं यातनाऐं
गुर्दो और फेफड़ो में
दिल जैसी चीज़ उनके
लिये मात्र बीती हुई कोई
कृत्रिम घटना होती है
वे जो अकेले सोते हैं
उनके कमरे मे पाये जाते हैं
दुनिया के सबसे मासूम जूते
जिनके लिये एड़ियों की
अभिव्यक्तियाँ समर्पित रहती हैं
सफर मे रचते हैं ईमानदार इतिहास
वे जो अकेले सोते हैं
उनका कमरा होता है ककहरा
और आँखो की सफेदी खड़ियाँ
सौ से एक तक की उल्टी
गिनती का मंतर जानते हैं
समझते हैं झींगुरो का गौरव
वे जो अकेले सोते हैं
टाँग देते हैं खूँटियों पर अपनी
पिछले कुछ सालो की बीमारियाँ,
कुछ एक हारी हुई बहसें और
ठुकराई हुईं पुरानी वारदाते
जोड़ते हैं जर्जरता भविष्य के लिये
वे जो अकेले सोते हैं
अपने कमरे मे रोप सकते हैं धान,
बहा सकते हैं सिन्धु, बना सकते हैं
चाँद तक पुल और जीत सकते हैं
तीसरा विश्व युद्ध,चला सकते हैं मदरसा
अपना माथा स्वयं ही सहलाते हैं
वे जो अकेले सोते हैं
एक चद्दर, एक रोटी और कुछ
दस्तावेज़ो से बिना किसी अफसोस
किये पूर्णता महसूस करते हैं
अपनी त्वचा पर उगा लेते हैं कई परतें
शूल चुभने से ठिठक कर रह जाता है
वे जो अकेले सोते हैं
अपने पंखे को सीखा देते हैं हवाओं
का विद्रोह और तकिये को सीखाते
हैं प्रेमिका की गोद मे रखे प्रेमी के
सर की समस्त केन्द्रित मनोस्थिति
निवाला निवाला नींद गटकते हैं
वे जो अकेले सोते हैं
अपने पैरो के छालो को अगले दिन
के मरहम का झाँसा देकर निढाल
होकर गिर जाया करते हैं धम्मम से
दिमाग के किसी कोने मे चलती रहती
है खोया पाया केन्द्र की कार्यवाहियाँ
वे जो अकेले सोते हैं
उनके बिस्तर को अगर भेदा जाये
तो मिलेंगी ऊँगलियों से लिखी हुई
असंख्य कवितायें और वृतांत
दिहाड़ी से ज़्यादा वे पसन्द करते
हैं मौसमो के रंग और मौन के सुरंग
वे जो अकेले सोते हैं
वे प्रेम मे पिछड़ जाते हैं बेतहाशा
जब वे नहीं रहेंगे तो लगेगा ही नही
जैसे वे चल बसे हैं, वे वही टूँगते
रहेंगे मेज़, कुर्सियाँ, कविताऐं, लोगो
के मुड़े हुये मुँह और दिखाये हुये पीठ