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वे जो वग़ैरह थे / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
वे जो वग़ैरह थे
वे बाढ़ में बह जाते थे
वे भुखमरी का शिकार हो जाते थे
वे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थे
वे दंगों में मार दिए जाते थे
वे जो वग़ैरह थे
वे ही खेतों में फ़सल उगाते थे
वे ही शहरों में भवन बनाते थे
वे ही सारे उपकरण बनाते थे
वे ही क्रांति का बिगुल बजाते थे
दूसरी ओर
पद और नाम वाले
सरकार और कारोबार चलाते थे
उन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थे
किंतु वे जो वग़ैरह थे
उन्हीं में से
क्रांतिकारी उभर कर आते थे
वे जो वग़ैरह थे
वे ही जन-कवियों की
कविताओं में अमर हो जाते थे