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वे ठौर-ठिकाने / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
बीत रहे हैं
मास-दिवस औ'
बीत रहे हैं पल
यादों में वे ठौर-ठिकाने
नैनों में मृदुजल
ताल घिरा पेड़ों से जैसे
घिरे हुए थे बाहों में
कूज रहे सुग्गे ज्यों तिरियां
गायें सगुन उछाहों में
आँचल में इक
मधुफल टपका
चूम लिया करतल
शाम, जलाशय
तिरते पंछी
रात
पेड़ पर आ बैठे
चक्कर कई लगा कर
हम तुम
झुरमुट नीचे जा बैठे
पर फड़का कर
पंछी कहते
देर हुई घर चल