वे नाख़ून थे / नरेन्द्र पुण्डरीक

जब वे हमारे साथ पढ़ते थे
तब वे हमें अपने नाख़ून के
बराबर छोटे लगते थे
जैसे ही बढ़ते थे उनके नाख़ून
हमारे बाप-दादाओं को
असुविधा होने लगती थी
इस पर वे उन्हें उनके हाथ-पैर से नहीं
सीधे-सीधे सर से काट लेते थे
यह देख कर हमें अजीब-सा लगता था
क्योंकि वे हमें अपने जैसे ही दिखते थे
पर ऐसा करते हुए
हमारे बाप-दादाओं को राहत महसूस होती थी
कुछ दिन तक हमारे बाप-दादा
बेखटके आराम से रह लेते थे,

पर वे नाख़ून थे
उन्हें तो बढ़ना ही था
और वे बढ़े,

जब वे खेल के मैदान में
हमारे साथ खेलते थे
हमारे बाप-दादा भय की तरह
उनके आस-पास डोलते रहते थे
और वे हार जाते थे
हमारे अकुशल और कमज़ोर हाथों से
बार-बार पिटते थे
क्योंकि उनका पिटना हमारे
बाप-दादाओं को अच्छा लगता था,

खेल के मैदान में हारते हुए जब वे
पढ़ाई के मैदान में आगे होते दिखाई देते
तो हमारे बाप-दादा हम पर
खीझते हुए कहते -- ‘हम सब की
नाक कटा लओ
यह चमरे ससुरे आगे बढ़ गओ’

ये वे दिन थे जब वे
स्कूल में भूखे रहने पर भी
पेट को हवा से फुलाए रखकर
हमारे साथ दिन-भर पढ़ते थे
तब इन्हें अपनी भूख मारने की
कई कलाएँ आती थी
अक्सर पानी से पेट फुला कर
पहुँचते थे घर
कभी हवा से
कभी पानी से
पेट फुला कर बढ़ते हुए
इन्हें देख कर अक्सर लगता था,

कितने बेवकूफ़ और बेशऊर थे
हमारे बाप-दादा जिन्होंने
दीप की लौ को
अन्धेरे की चादर से ढकनें में ही
गवाँ दी अपनी सारी अक़ल,

यह सब और इस समय को देखकर
मुझे विष्णु नागर की कविता की
ये लाइनें याद आ रही हैं
‘दया राम बा
नंगे रहो और करो मज़ा’
यानी अब हमारे लिए और
उनके लिए कुछ नहीं बचा
यह नंगों का समय है
नंगे मज़ा कर रहे हैं।

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