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वे पाँच थीं / रंजना मिश्र

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एक

वे पाँच थीं
पाँच चिड़ियों-सी
या कह लो पाँच सखियों-सी
सप्तक के पाँच स्वरों की तरह
हालाँकि वे हो सकती थीं
दो कम तीन
या दो ज़्यादा सात भी
पर वे थीं पाँच
पाँच उँगलियों जैसी
अलग-अलग आकार
रूप-रंग-देह-गंध की
जिनके जुड़ने से बन सकती थी
सँभावनाओं से भरी हथेली
भविष्य की रेखाएँ जिसमें साथ-साथ चलती
या फिर कोई नायाब सिक्का अपने भीतर छुपाए
पसीने से भीगी मुट्ठी
जिसके खुलते ही
खुल सकती थीं नई यात्राएँ
और अदेखा भविष्य
जो उसके बंद होते ही खो भी सकता था

दो

बहरहाल वे पाँच थीं
और अपने साथ लिए चलती थीं
पाँच नदियाँ, पाँच मिथक और पाँच आकाशगंगाएँ
उनके सपनों थे में पाँच अजन्मे संसार
पाँच पके खेतों की तरह
जो झूमते थे कटाई के ठीक पहले सुनहले होकर
वे तितलियों की तरह लिए चलती
अपने नन्हे पैरों में पराग
और उड़ जाती थीं बार-बार
अपने भविष्य की ओर
क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर की तलाश में

तीन

अपनी-अपनी आकाशगंगाओं, मिथकों और नदियों को
मिलाकर उन्होंने रचे पाँच संसार
डाला देह का सारा नमक, सारी मिठास
और मन का सारा संगीत
बस सारे आँसू और दुख
थाम लिए अपनी अपनी हथेलियों में
और लाँघ गईं पाँच गुने पाँच पच्चीस कालावधियाँ
मिलीं एक दिन वे
पाँचवें महीने, पाँचवें दिन के पाँचवें पहर
अपनी पाँच खुरदरी हथेलियाँ
एक दूसरे की ओर बढ़ाए
जिनमें था ढेर-सा नमक
थोड़े-से आँसू और पता नहीं
और पता नहीं कितनी कटी-फटी रेखाएँ

चार

उनके अलग होने के सिरे तो बहुत थे
पर जोड़ने वाली हथेलियाँ एक-सी थीं
और एक ही से थे उनके दुख
जिसे वे कहती-सुनती रहीं एक दूसरे से
बिना कुछ कहे-सुने
जैसे वे सुन रही हों
गर्भ के पाँचवें महीने में
हौले-हौले साँस लेते
शिशु की धड़कन
वे पाँच थीं
जबकि वे हो सकती थीं
तीन या सात

पाँच

उनके कहने-सुनने में शेष थी अभी ऐसी कथा
जिसमें गुँथी थीं हथेलियों में फैली संभावनाओं की रेखाएँ
जहाँ अनावृत था भविष्य
मुट्ठी में छिपे उस नायाब सिक्के की तरह
औड़व जाति के रागों की तरह
जो गाते हैं पाँच स्वरों में
सप्तक में स्थिर बैठे पंचम की तरह
वे ही तो लिए चलती थीं अपने साथ
पाँच नदियाँ पाँच मिथक
पाँच आकाशगंगाएँ और पाँच संसार
आख़िर वे ही तो थीं
क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर