वे बहुत सारे हैं / भावना मिश्र
वे बहुत सारे हैं
वे ख़ूब सारे हैं
अक्सर जो मिल जाते हैं
बड़े-बड़े शहरों की
छोटी-छोटी बस्तियों में
मन्दिरों के बाहर
सीढ़ियों पर कंचे खेलते
गुज़ार देते हैं सारा दिन
पर शायद ही झाँकते हों कभी
मन्दिर के भीतर,
हो सकता है वे नास्तिक न हों, पर,
जिन्होंने चखा हो भूख का स्वाद
अक्सर लकवा मार ही जाता है
उनकी आस्था को.
वे जो सिग्नल पर बेचते हैं
प्रेमियों को गुलाब
वे अनपढ़
क़लम भी बेचते हैं
रईस शहरों की
ख़ूबसूरत सड़कों पर
बेहया के फूल से खिले रहते हैं जो
वे कहीं ठेला धकेलते हैं
कहीं बनाते हैं कटिंग चाय
तत्पर रहते हैं आपके जूते चमकाने को
और जो जूते भी नहीं चमका पाते
वे मिल जाते हैं कूड़े के ढेर से जूठन बीनते.
गोल रोटी की लय पर
गोल गोल घूमती हैं इनकी आँखें
एक रोटी की चाहत में
शून्य हो जाती हैं इनकी समस्त नैतिकता
और कर बैठते हैं चोरी भी
बड़े ही संकीर्ण हैं इनके सरोकार
ये फूहड़ कोई रूचि नहीं रखते
आला चीज़ों में
ये नहीं जानना चाहते
मोनालिसा की मुसकान का रहस्य.
ये तो बस महसूसना चाहते हैं
उस एक क्षण को
जब पेट भरा होता है
और आत्मा तृप्त