वे लोग और वे लोग / गोविन्द माथुर
गहराती अंधियारी रातों के
सन्नाटे में
मैं चौंक उठता हूँ
वे लोग यहाँ
किसी भी वक़्त आ सकते हैं
चेहरे पर सफ़ेद नकाब डाले
हाथों में आधुनिक हथियार लिए
हमारे घरों के कुन्डों कों
कभी भी खड़खड़ा सकते हैं
बन्दूकों के कुन्दों से तोड़ सकते हैं
चरमराते दरवाज़ों को
वे लोग किसी भी क्षण
लूट सकते हैं हमारी अस्मत
छीन सकते हैं किसी के सुहाग को
आग लगा सकते हैं
हमारे वीरान आशियानों में
वे लोग यहीं आसपास
मंडराते रहते हैं
हर समय
फिर आएंगे वे लोग
ख़ाक़ी वर्दियों में, जीपों में
गुज़रते, धूल उड़ाते
उधेड़ेगें हमारी नुची हुई चमड़ी
ठोकरें मारेगें दशहत भरे जिस्मों पर
और...... और तोड़ जाएंगे
हमारे टूटे हुए घरों को
एक बार फिर
फाड़े जाएंगे फटे हुए कपड़े
रौदें जाएंगे स्त्रियों के रौदें हुए जिस्म
हमें बतलाया जाएगा- कि
हमारे साथ क्या हुआ था
उनमें लिखे बयानों पर
चस्पा किए जाएंगे हमारे अंगूठे
हर बार
यही होता है
पहले आते हैं वे लोग
फिर आते हैं वे लोग