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वे वसंत की सजीवता / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
पतली-से-पतली टहनी के मुड़ जाने पर
वे चौंकती नहीं
और न टूटने पर कोई आश्चर्य करतीं
वे एक टहनी छोड़ती हैं
दूसरी पर जाकर अपने पंख तोलती हैं
और तीसरी पर चुपचाप उतरकर
छेड़ देती हैं ख़ामोश सितार
वे हर तरह के संगीत से सम्पन्न हैं
दाने चुगती हैं और समा जाती है
पेड़ की शिराओं में रक्त की तरह
वे सभी सामूहिक रूप से उड़ती हैं आकाश में
मुक्ति के कलरव बिखेरती हुई
और पुनः छू लेती हैं धरती
अपनी आत्मीयता के इन्द्रधनुष बनाती
वे बनाती हैं अपने नीड़
पेड़ की सबसे संवेदनशील जगह पर
वहाँ रखती हैं अपने हिस्से का
अछूता प्रेम
वे वसंत की सजीवता
पतझड़ का उत्थान
और जीवन का जीवंत प्रयोजन हैं