भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वे विचार / अलेक्सान्दर कुशनेर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे विचार और वे दृश्‍य
जिन्‍हें दिन में हम दूर भगाते हैं
रात में आ जाते हैं हमारे पास
हम उन्‍हें अच्‍छी तरह पहचानते हैं भले ही वे
पहने होते हैं दूसरे कपड़े
सपनों के धुँधले से पहरावे में
उतरते हैं वे, चोरी से घुस जाते हैं भीतर
और फ्रायड को गलती से शेक्‍सपियर समझ बैठते हैं
वे कुछ ढूँढ़ते हैं स्‍नानघर में, बरामदे में
अल्‍मारी के भीतर, मेज के नीचे।

ओ छाया, क्‍या चाहिए तुझे? पर छाया
कुछ नहीं बोलती। कभी दरवाजा बंद करती है
तो कभी चिपक जाती है बुकशेल्‍फ से।

धँस जाती है विचारों में
बचाये रखती है अपना अदृश्‍य रूप
बक्‍से की तरह खोल बैठती है असहाय हृदय को।

मेरा पूरा पेट खाती है
सुबह को थका और टूटा हुआ सिर
उठने की हालत में नहीं होता।

मुझे कविताएँ नहीं चाहिए
नहीं चाहिए यह सुबह, न ही ये पत्तियाँ।

यह उदासी और सुस्‍ती ही शायद मौत है
तुम्‍हारी उम्‍मीदें जिंदा हैं मर जाने के बाद भी
वहाँ भी चाहते हो जीना… कुछ तो रहम करो!