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वे ही दिन बस अच्छे लगते / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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मुझसे पूछो, माँ बापू से,
मैं क्यों कर गुस्सा रहती हूँ?
बापू ऑफिस जा चुकते हैं,
जब तक हूँ मैं सोकर उठती।
रात देर जब घर आते वे,
मैं उनको हूँ सोती मिलती।
रविवार के दिन ही केवल,
मैं बापू से मिल सकती हूँ।
माताजी मुझको मोटर में,
सुबह आठ पर रख आतीं हैं।
मुझे मानतीं मात्र पार्सल,
डाक समझकर भिजवाती हैं।
सात दिनों में पूरे छ: दिन,
मैं यह सब सहती रहती हूँ।
तीन बजे जब छुट्टी होती,
मैं शाळा से घर आती हूँ।
माँ चल देतीं किटी पार्टी,
मैं ही घर में रह जाती हूँ।
अपना दर्द बताऊँ किसको,
कहने में भी तो डरती हूँ।
कभी-कभी ही दादा दादी,
यहाँ गाँव से आ पाते हैं।
परियों या राजा रानी के,
किस्सों से मन बहलाते हैं।
वे ही दिन बस अच्छे लगते,
जब झरना बनकर झरती हूँ।