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वे / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

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सैमुएल बेकेट के प्रति आभार सहित

‘कुछ नहीं होता’
वे कहते हैं
कभी अपने टोप के भीतर झाँकते
कभी अपने जूते सूँघते हुए
दूसरे पर दुलत्ती झाड़ते
थूकते
लेट जाते हैं
एक दूसरे को भद्दी गालियाँ बकते हुए ।
‘कोई नहीं आता न कोई जाता है’
वे बुदबुदाते हैं
वक़्त काटने के लिए
कभी बाइबिल कभी पैगम्बर
के किस्से सुनाते हैं ।

देखते रहते हैं वे
मालिक को चाबुक फटकरते
और मुर्गा चबाते
जो हड्डियाँ चूस कर इधर-उधर फेंकता जाता है
नौकर जिसकी गर्दन खून रिस रहा है
भद्दे ढंग से नाचता है ।

वे फेंकी हुई हड्डियों पर झपटते हैं
उन्हें उठाकर चूसते हैं
और बची हुई हड्डियों को जेब में डाल लेते हैं ।
‘अब और नहीं सहा जाता’
वे दुहराते हैं
अपने ईश्वर को बार-बार पुकारते
हाथों से चारों ओर बेमतलब टटोलते
पेड़ों की नकल उतारते हैं ।

उनकी याददाश्त गायब हो गई है
सनीचर इतवार या शुक्रवार में
उनके लिए कोई फर्क नहीं
उन्हें कुछ याद नहीं
कल किसने कहाँ मारा था
और कब वे गूँगे, बहरे या अन्धे हुए थे ।

वे बेहद थक गए हैं
अपने टोप और जूते से जूझते हुए
हाँफते-चीख़ते-चिल्लाते-नाचते ख़ामोश हो जाते हैं
और गोदो के इन्तज़ार में
रोज़ की तरह ऊँघने लगते हैं ।