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वे / सांवर दइया
Kavita Kosh से
वे आकाश में उडते
मैली आंख से करते हैं
धवल धरती का मुआयना
वे धरती पर आते हैं
बंदरों को बांटते हैं
धारदार उस्तरे
बंदर एक दूसरे के
नाक-कान-गला
काटने का तलाशते हैं मौका
जहां तक पहुंचता है हाथ
करते हैं वे घाव
मरते हैं आदमी
धरती होती है रक्त-रंजित
लेकिन उन के होंठों खिलती है-
मुस्कुराहट !
मजे करते उडाते है अंगूरी शराब
असली धी में पके खाते हैं मुर्गे
कच्ची-कोमल-अनछुई सांसों के सागर में
लगाते है वे गोते !
और उन के बंदर
मचाते हैं उत्पात घूम घूम कर
वे हर्षित हो कर मनाते हैं उत्सव !
अनुवाद : नीरज दइया