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वैतरणी / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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ना जाने कब मैं उठ खड़ा हुआ
मृत्यु से - कब्र के अंधकार की आगोश से
शायद वैतरणी ने छुट्टी दी थी कुछ दिनों की

उड़ चलता हूँ धरती की ओर काले पंख फैलाये गिद्ध की तरह
सात-दिन और सात-रात उड़ कर भी पा जाऊं शायद
उस धरती पर बिखरे प्रेम के आलोक को;
शायद वैतरणी ने छुट्टी दी थी कुछ दिनों की

बीत गए थे सात दिन – तब भी थी पृथ्वी अंधकार में निमग्न,
और था गिद्धों का एक झुंड भी मेरी तरह ही थका-हारा और क्लांत
अंतहीन आकाश में आँखें बंद किए निरुद्देश्य मंडराते हुए,
देख रहा था पृथ्वी को दिन में और रात में,
थके-हारे क्लांत गिद्धों का झुंड

पूछा मैंने “देखा था मैंने तुम सबों को वैतरणी के उस पार,
जहाँ थी सिर्फ नींद – काली अँधेरी सुनसान रातें – मृत्यु की नदी,
तुम्हें भी भाया नहीं क्या इस पृत्वी के हरे घास,
अठखेलियाँ करती सूर्य की किरणें, और व्यस्त कठफोरवा”
लेकिन अनसुना कर उड़ गया अँधेरे में ही गहरे कुहासे की ओर
थके-हारे क्लांत गिद्धों का झुंड

रुक गया था तो एक – अपने रंगहीन विस्तृत डैनों को फड़फड़ाते –
“जा कहाँ रहे हो? फिर उसी मर्त्यलोक की ओर? कौन रह गया तुम्हारा अब वहाँ?”
“सभी तो हैं मेरे सिवा, सुबह ही तो था आया पार करने वैतरणी,
प्यार किया जिसे, प्यार पाया जिसका, मेरा सब कुछ तो वहीँ है”

क्षणिक गहन विचार, फिर क्लांत-प्राण,
उड़ चला फिर से उसी वैतरणी की ओर अपने पंख फैलाए,
रोका था मैंने उसे, “देखो उन पेड़ों की शाखाओं को, और उन झुरमुटों के उस पार,
बहती है जो एक नदी, देखो उसे, गुजरती है मेरे गाँव से”
रुका नहीं, उड़ता रहा बेखबर, गहरे कुहासे की ओर

बीत गये सात और दिन, सात और रातें, इसी धरती के अंधकार और प्रकाश में,
मैं फिर भी उड़ रहा था, एकाकी, गिद्ध सा काला पंख पसारे,
नजर आ रहे थे धरा पर, यादों में अब भी बसा था जिनके, जो चाहते थे मुझे,
अगर फिर से पा जाता वही शरीर, बह जाती फिर से वात्सल्य की धारा,
रोज सुबह, रोज शाम, ढूंढ ही लेते मुझे फिर से पाकर
और भी दुलारते मुझे, और भी, बस और कुछ नहीं,

सात दिन और सात रातें और भी, खिड़कियों पर लहराते पर्दे,
देखा था उन्हें और सोचता हूँ, कि
पा लेता फिर से अगर शरीर, सच हो जाता मेरा प्रेम भी,
आज, आश्चर्यचकित था मैं,
सिर्फ आश्चर्य नहीं, यादें नहीं, कुछ गलतियाँ भी, कुछ कर्तव्य भी,
सात दिन और सात रातें यही सोचता रहा मंडराते हुए धरती पर,

मृत्यु कामना ही शाश्वत सत्य है तो,
चाहता हूँ फिर से मृत्यु वरण,
विस्तीर्ण आकाश में एकाकी विचरता, महाशून्य में,
डैनों को फैलाए किसी गिद्ध की तरह,
उड़ता चला जा रहा हूँ,
कोई विराम नहीं – कोई ठहराव नहीं – कोई सपना नहीं,
जहाँ है शान्ति और अविरत नींद – उसी वैतरणी के काले जल की ओर,
थके-हारे क्लांत गिद्ध की तरह।