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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टदश सर्ग / पृष्ठ ४

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तपस्विनी-छात्राओं के उद्वोधा से।
दिव्य ज्योति- बल-से-बल सका प्रदीप वह॥
जिससे तिमिर-विदूरित बहु-घर के हुए।
लाख-लाख मुखड़ों की लाली सकी रह॥46॥

ऋषि, महर्षियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों।
हृदयों में बस दिव्य-ज्योति की दिव्यता॥
भवहित-कारक सद्भावों में सर्वदा।
भूरि-भूरि भरती रहती थी भव्यता॥47॥

जनपदाधि-पतियों नरनाथों-उरों में।
दिव्य-ज्योति की कान्ति बनी राका-सिता॥
रंजन-रत रह थी जन-जन की रंजिनी।
सुधामयी रह थी वसुधा में विलसिता॥48॥

साधिकार-पुरुषों साधारण-जनों के।
उरों में रमी दिव्य-ज्योति की रम्यता॥
शान्तिदायिनी बन थी भूति-विधायिनी।
कहलाकर कमनीय-कल्पतरु की लता॥49॥

यथाकाल यह दिव्य-ज्योति भव-हित-रता।
आर्य-सभ्यता की अमूल्य-निधि सी बनी॥
वह भारत-सुत-सुख-साधन वर-व्योम में।
है लोकोत्तर ललित चाँदनी सी तनी॥50॥

उसके सारे-भाव भव्य हैं बन गये।
पाया उसमें लोकोत्तर-लालित्य है॥
इन्दु कला सी है उसमें कमनीयता।
रचा गया उस पर जितना साहित्य है॥51॥

उसकी परम-अलौकिक आभा के मिले।
दिव्य बन गयी हैं कितनी ही उक्तियाँ॥
स्वर्णाक्षर हैं मसि-अंकित-अक्षर बने।
मणिमय हैं कितने ग्रंथों की पंक्तियाँ॥52॥

आज भी अमित-नयनों की वह दीप्ति है।
आज भी अमित-हृदयों की वह शान्ति है॥
आज भी अमित तम-भरितों की है विभा।
आज भी अमित-मुखड़ों की वह कान्ति है॥53॥

आज भी कलित उसकी कीर्ति-कलाप से।
मंजुल-मुखरित उसका अनुपम-ओक है॥
आज भी परम-पूता भारत की धरा।
आलोकित है उसके शुचि आलोक से॥54॥

उठकर इतना उच्च ठहरती क्यों यहाँ।
इस ध्वनि से ही उस दिन थी ध्वनिता-मही॥
अपने दिव्य गुणों की दिखला दिव्यता।
वह तो स्वर्गीया ही जाती थी कही॥55॥

दोहा

अधिक-उच्च उठ जनकजा क्यों धरती तजतीं न।
बने दिव्य से दिव्य क्यों दिव देवी बनतीं न॥56॥