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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ १

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चतुर्दश सर्ग : दाम्पत्य-दिव्यता
छन्द : तिलोकी

प्रकृति-सुन्दरी रही दिव्य-वसना बनी।
कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था॥
मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू।
फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था॥1॥

मलयानिल बह मंद मंद सौरभ-बितर।
वसुधातल को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥
स्फूर्तिमयी-मत्तता-विकचता-रुचिरता।
प्राणि मात्र अन्तस्तल में था भर रहा॥2॥

शिशिर-शीत-शिथिलित-तन-शिरा-समूह में।
समय शक्ति-संचार के लिए लग्न था॥
परिवर्तन की परम-मनोहर-प्रगति पा।
तरु से तृण तक छबि-प्रवाह में मग्न था॥3॥

कितने पादप लाल-लाल कोंपल मिले।
ऋतु-पति के अनुराग-राग में थे रँगे॥
बने मंजु-परिधानवान थे बहु-विटप।
शाखाओं में हरित-नवल-दल के लगे॥4॥

कितने फल फूलों से थे ऐसे लसे।
जिन्हें देखने को लोचन थे तरसते॥
कितने थे इतने प्रफुल्ल इतने सरस।
ललक-दृगों में भी जो थे रस बरसते॥5॥

रुचिर-रसाल हरे दृग-रंजन-दलों में।
लिये मंजु-मंजरी भूरि-सौरभ भरी॥
था सौरभित बनाता वातावरण को।
नचा मानसों में विमुग्धता की परी॥6॥

लाल-लाल-दल-ललित-लालिमा से विलस।
वर्णन कर मर्मर-ध्वनि से विरुदावली॥
मधु-ऋतु के स्वागत करने में मत्त था।
मधु से भरित मधूक बरस सुमनावली॥7॥

रख मुँह-लाली लाल-लाल-कुसुमालि से।
लोक ललकते-लोचन में थे लस रहे॥
देख अलौकिक-कला किसी छबिकान्त की।
दाँत निकाले थे अनार-तरु हँस रहे॥8॥

करते थे विस्तार किसी की कीर्ति का।
कितनों में अनुरक्ति उसी की भर सके॥
दिखा विकचता, उज्ज्वलता, वर-अरुणिमा।
श्वेत-रक्त कमनीय-कुसुम कचनार के॥9॥

होता था यह ज्ञात भानुजा-अंक में।
पीले-पीले-विकच बहु-बनज हैं लसे॥
हरित-दलों में पीताभा की छबि दिखा।
थे कदम्ब-तरु विलसित कुसुम-कदम्ब से॥10॥

कौन नयनवाला प्रफुल्ल बनता नहीं।
भला नहीं खिलती किसके जी की कली॥
देखे प्रिय हरियाली, विशद-विशालता।
अवलोके सेमल-ललाम-सुमनावली॥11॥

नाच-नाच कर रीझ भर सहज-भाव में।
किसी समागत को थे बहुत रिझा रहे॥
बार-बार मलयानिल से मिल-मिल गले।
चल-दल-दल थे गीत मनोहर गा रहे॥12॥

स्तंभ-राजि से सज कुसुमावलि से विलस।
मिले सहज-शीतल-छबिमय-छाया भली॥
हरित-नवल-दल से बन सघन जहाँ तहाँ।
तंबू तान रही थी वट-विटपावली॥13॥

किसको नहीं बना देता है वह सरस।
भला नहीं कैसे होते वे रस भरे॥
नारंगी पर रंग उसी का है चढ़ा।
हैं बसंत के रंग में रँगे संतरे॥14॥

अंक विलसता कैसे कुसुम-समूह से।
हरे-हरे दल उसे नहीं मिलते कहीं॥
नीरसता होती न दूर जो मधु मिले।
तो होता जंबीर नीर-पूरित नहीं॥15॥

कंटकिता-बदरी तो कैसे विलसती।
हो उदार सफला बन क्यों करती भला॥
जो प्रफुल्लता मधु भरता भू में नहीं।
कोबिदार कैसे बनता फूला फला॥16॥

दिखा श्यामली-मूर्ति की मनोहर-छटा।
बन सकता था वह बहु-फलदाता नहीं॥
पाँव न जो जमता महि में ऋतुराज का।
तो जम्बू निज-रंग जमा पाता नहीं॥17॥

कोमलतम किसलय से कान्त नितान्त बन।
दिखा नील-जलधार जैसी अभिरामता॥
कुसुमायुध की सी कमनीया-कान्ति पा।
मोहित करती थी तमाल-तरु-श्यामता॥18॥

मलयानिल की मंथर-गति पर मुग्ध हो।
करती रहती थीं बनठन अठखेलियाँ॥
फूल ब्याज से बार-बार उत्फुल्ल हो।
विलस-विलस कर बहु-अलबेली-बेलियाँ॥19॥

हरे-दलों से हिल मिल खिलती थीं बहुत।
कभी थिरकतीं लहरातीं बनतीं कलित॥
कभी कान्त-कुसुमावलि के गहने पहन।
लतिकायें करती थीं लीलायें ललित॥20॥