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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ २

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जनक-नन्दिनी ने सादर-कर-वन्दना।
बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया॥
फिर यह सविनय परम-मधुर-स्वर सेकहा।
बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया॥21॥

आत्रेयी बोलीं हूँ क्षमाधिकारिणी।
आई हूँ मैं आज कुछ कथन के लिए॥
आपके चरित हैं अति-पावन दिव्यतम।
आपको नियति ने हैं अनुपम-गुण दिए॥22॥

अपनी परहित-रता पुनीत-प्रवृत्ति से।
सहज-सदाशयता से सुन्दर-प्रकृति से॥
लोकरंजिनी-नीति पूत-पति-प्रीति से।
सच्ची-सहृदयता से सहजा-सुकृति से॥23॥

कहा, मानवी हैं देवी सी अर्चिता।
व्यथिता होते, हैं कर्तव्य-परायणा॥
अश्रु-बिन्दुओं में भी है धृति झलकती।
अहित हुए भी रहती है हित-धारणा॥24॥

साम्राज्ञी होकर भी सहजा-वृत्ति है।
राजनन्दिनी होकर हैं भव-सेविका॥
यद्यपि हैं सर्वाधिकारिणी धरा की।
क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका॥25॥

कभी किसी को दुख पहुँचाती हैं नहीं।
सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा॥
कटु-बातें आनन पर आतीं ही नहीं।
आप सी न अवलोकी अन्य प्रियम्वदा॥26॥

नवनीतोपम कोमलता के साथ ही।
अन्तस्तल में अतुल-विमलता है बसी॥
सात्तिवकता-सितता से हो उद्भासिता।
वहीं श्यामली-मूर्ति किसी की है लसी॥27॥

देवि! आप वास्तव में हैं पति-देवता।
आप वास्तविकता की सच्ची-स्फूर्ति हैं॥
हैं प्रतिपत्ति प्रथित-स्वर्गीय-विभूति की।
आप सत्यता की, शिवता की मूर्ति हैं॥28॥

किन्तु देखती हूँ मैं जीवन आपका।
प्राय: है आवरित रहा आपत्ति से॥
ले लीजिए विवाह-काल ही उस समय।
रहा स्वयंवर ग्रसित विचित्र-विपत्ति से॥29॥

था विवाह अधीन शंभु-धनु भंग के।
किन्तु तोड़ने से वह तो टूटा नहीं॥
वसुंधरा के वीर थके बहु-यत्न कर।
किन्तु विफलता का कलंक छूटा नहीं॥30॥

देख यह दशा हुए विदेह बहुत-विकल।
हुईं आपकी जननी व्यथिता, चिन्तिता॥
आप रहीं रघु-पुंगव-बदन विलोकती।
कोमलता अवलोक रहीं अति-शंकिता॥31॥

राम-मृदुल-कर छूते ही टूटा धनुष।
लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई॥
किन्तु कलेजों में असफल-नृप-वृन्द के।
चुभने लगी अचानक ईष्या की सुई॥32॥

कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित।
परिणय होगा नहीं टूटने से धनुष॥
समर भयंकर होगा महिजा के लिए।
असि-धारा सुर-सरिता काटेगी कलुष॥33॥

राजाओं की देख युध्द-आयोजन।
सभी हुए भयभीत कलेजे हिल गए॥
वे भी सके न बोल न्याय प्रिय था जिन्हें।
बड़े-बड़े-धीरों के मँह भी सिल गए॥34॥

इसी समय भृगुकुल-पुंगव आये वहाँ।
उन्हें देख बहु-भूप भगे, बहु दब गए॥
सब ने सोचा बहुत-बड़ा-संकट टला।
खड़े हो सकेंगे न अब बखेडे नये॥35॥

पर वे तो वध-अर्थ उसे थे खोजते।
जिसने तोड़ा था उनके गुरु का धनुष॥
यही नहीं हो हो कर परम-कुपित उसे।
कहते थे कटु-वचन परुष से भी परुष॥36॥

ज्ञात हुए यह, सब लोगों के रोंगटे।
खड़े हो गये लगे कलेजे काँपने॥
किन्तु तुरन्त उन्हें अनुकूल बना लिया।
विनयी-रघुबर के कोमल-आलाप ने॥37॥

था यौवन का काल हृदय उत्फुल्ल था।
प्रेम-ग्रंथि दिन दिन दृढ़तम थी हो रही॥
राज-विभव था राज्य-सदन था स्वर्ग सा।
ललक उरों में लगन बीज था बो रही॥38॥

वर विलासमय बन वासर था विलसता।
रजनी पल पल पर थी अनुरंजन-रता॥
यदि विनोद हँसता मुखड़ा था मोहता।
तो रसराज रहा ऊपर रस बरसता॥39॥

पितृ-सद्म ममता ने भूल मन जिस समय।
ससुर-सदन में शनै: शनै: था रम रहा॥
उन्हीं दिनों अवसर ने आकर आपसे।
समाचार पति राज्यारोहण का कहा॥40॥