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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ २

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मन का नियमन प्रति-पालन शुचि-नीति का।
प्रजा-पुंज-अनुरंजन भव-हित-साधना॥
कौन कर सका भू में रघुकुल-तिलक सा।
आत्म-सुखों को त्याग लोक-अराधना॥16॥

देवि अन्यतम-मूर्ति उन्हीं की आपको।
युगल-सुअन के रूप में मिली है अत:॥
अब होगी वह महा-साधना आपकी।
बनें पूततम पूत पिता के सम यत:॥17॥

आपके कलिततम-कर-कमलों की रची।
यह सामने लसी सुमूर्ति श्रीराम की॥
जो है अनुपम, जिसकी देखे दिव्यता।
कान्तिमती बन सकी विभा घनश्याम की॥18॥

इस महान-मन्दिर में जिसकी स्थापना।
हुई आपकी भावुकतामय-भक्ति से॥
आज नितान्त अलंकृत जो है हो गई।
किसी कान्तकर की कुसुमित-अनुरक्ति से॥19॥

रात-रात भर दिन-दिन भर जिसके निकट।
बैठ बिताती आप हैं विरह के दिवस॥
आकुलता में दे देता बहु-शान्ति है।
जिसके उज्ज्वलतम-पुनीत-पग का परस॥20॥

जिसके लिए मनोहर-गजरे प्रति-दिवस।
विरच आप होती रहती हैं बहु-सुखित॥
जिसको अर्पण किए बिना फल ग्रहण भी।
नहीं आपकी सुरुचि समझती है उचित॥21॥

राजकीय सब परिधानों से रहित कर।
शिशु-स्वरूप में जो उसको परिणत करें।
तो वह कुश-लव मंजु-मूर्ति बन जायगी।
यह विलोम मम-नयन न क्यों मुद से भरें॥22॥

देवि! पति-परायणता तन्मयता तथा।
तदीयता ही है उदीयमाना हुई॥
उभय सुतों की आकृति में, कल-कान्ति में-
गात-श्यामता में कर अपनोदन हुई॥23॥

आशा है इनकी ही शुचि-अनुभूति से।
शिशुओं में वह बीज हुआ होगा वपित॥
पितृ-चरण के अति-उदात्त-आचरण का।
आप उसे ही कर सकती हैं अंकुरित॥24॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।
उसका पद है जीवन का भी जनयिता॥
उसमें है वह शक्ति-सुत-चरित सृजन की।
नहीं पा सका जिसे प्रकृति-कर से पिता॥25॥

इतनी बातें कह मुनिवर जब चुप हुए।
आता जल जब रोक रहे थे सिय-नयन॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी तब उठीं।
और कहे ये बड़े-मनमोहक-वचन॥26॥

था प्रिय-प्रात:काल उषा की लालिमा।
रविकर-द्वारा आरंजित थी हो रही॥
समय के मृदुलतम-अन्तस्तल में विहँस।
प्रकृति-सुन्दरी प्रणय-बीज थी बो रही॥27॥

मंद-मंद मंजुल-गति से चल कर मरुत।
वर उपवन को सौरभमय था कर रहा॥
प्राणिमात्र में तरुओं में तृण-राजि में।
केलि-निलय बन बहु-विनोद था भर रहा॥28॥

धीरे-धीरे द्युमणि-कान्त किरणावली।
ज्योतिर्मय थी धरा-धाम को कर रही॥
खेल रही थी कंचन के कल-कलस से।
बहुत विलसती अमल-कलम-दल पर रही॥29॥

किसे नहीं करती विमुग्ध थी इस समय।
बने ठने उपवन की फुलवारी लसी॥
विकच-कुसुम के व्याज आज उत्फुल्लता।
उसमें आकर मूर्तिमयी बन थी बसी॥30॥