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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षोडश सर्ग / पृष्ठ १

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षोडश सर्ग : शुभ सम्वाद
छन्द : तिलोकी

दिनकर किरणें अब न आग थीं बरसती।
अब न तप्त-तावा थी बनी वसुन्धरा॥
धूप जलाती थी न ज्वाल-माला-सदृश।
वातावरण न था लू-लपटों से भरा॥1॥

प्रखर-कर-निकर को समेट कर शान्त बन।
दग्ध-दिशाओं के दुख को था हर रहा॥
धीरे-धीरे अस्ताचल पर पहुँच रवि।
था वसुधा-अनुराग-राग से भर रहा॥2॥

वह छाया जो विटपावलि में थी छिपी।
बाहर आकर बहु-व्यापक थी बन रही॥
उसको सब थे तन-बिन जाते देखते।
तपन तपिश जिस ताना को थी तन रही॥3॥

जिसको छू कर तन होता संतप्त था।
वह समीर अब सुख-स्पर्श था हो रहा॥
शीतल होकर सर-सरिताओं का सलिल।
था उत्ताप तरलतम-तन का खो रहा॥4॥

आतप के उत्कट पंजे से छूटकर।
सुख की साँस सकल-तरुवर थे ले रहे॥
कुम्हलाये-पल्लव अब पुलकित हो उन्हें।
हरे-भरे पादप का पद थे दे रहे॥5॥

जलती-भुनती-लतिका को जीवन मिला।
अविकच-वदना पुन: विकच-वदना बनी॥
काँप रही थी जो थोड़ी भी लू लगे।
अब देखी जाती थी वही बनी-ठनी॥6॥

सघन-वनों में बहु-विटपावृत-कुंज में।
जितने प्राणी आतप-भय से थे पड़े॥
तरणि-किरण का पावक-वर्षण देखकर।
सहम रोंगटे जिनके होते थे खड़े॥7॥

अब उनका क्रीड़ा-स्थल था शाद्वल बना।
उनमें से कुछ जहाँ तहाँ थे कूदते॥
थे नितान्त-नीरव जो खोते अब उन्हें।
कलरव से परिपूरित थे अवलोकते॥8॥

नभ के लाल हुए बदली गति काल की।
दिन के छिपे निशा मुख दिखलाई पड़ा॥
उधर हुआ रविविम्ब तिरोहित तो इधर।
था सामने मनोहर-परिवर्त्तन खड़ा॥9॥

आई संध्या साथ लिये विधु-बिम्ब को।
धीरे-धीरे क्षिति पर छिटकी चाँदनी॥
इसी समय देवालय में पुत्रों सहित।
विलसित थीं पति-मूर्ति पास महिनन्दिनी॥10॥

कुलपति-निर्मित रामायण को प्रति-दिवस।
लव-कुश आकर गाते थे संध्या-समय॥
बड़े-मधुर-स्वर से वीणा थी बज रही।
बना हुआ था देवालय पीयूष-मय॥11॥

दोनों सुत थे बारह-वत्सर के हुए।
शस्त्र-शास्त्र दोनों में वे व्युत्पन्न थे॥
थे सौन्दर्य-निकेतन छबि थी अलौकिक।
धीर, वीर, गम्भीर, शील-सम्पन्न थे॥12॥

लव मोहित-कर धन के सरस-निनाद को।
मृदु-कर से थे मंजु-मृदंग बजा रहे॥
कुश माता की आज्ञा से वीणा लिये।
इस पद को बन बहु-विमुग्ध थे गा रहे॥13॥

पद

जय जय जयति लोक ललाम। नवल-नीरद-श्याम।
शक्ति से शिर-मणि-मुकुट की शुक्ति-सम-नृप-नीति।
सृजन करती है मनोरम न्याय-मुक्ता-दाम॥1॥

दमक कर अति-दिव्य-द्युति से दिवसनाथ समान।
है भुवन-तम-काल, उन्नत-भाल अति-अभिराम॥2॥

गण्ड-मण्डल पर विलम्बित कान्त-केश-कलाप।
है उरग-गति मति-कुटिलता शमन का दृढ़ दाम॥3॥

बहु-कलंक-कदन धनुष-सम-बंक-भू्र अवलोक।
सतत होता शमित है मद-मोह-दल संग्राम॥4॥

कमल से अनुराग-रंजित-नयन करुण-कटाक्ष।
हैं प्रपंची-विश्व के विश्रान्त-जन विश्राम॥5॥

किन्तु वे ही देख होते प्रबल-अत्याचार।
पापकारी के लिए हैं पाप का परिणाम॥6॥

हैं उदार-प्रवृत्ति-रत, पर-दुख-श्रवण अनुरक्त।
युगल-कुण्डल से लसित हो युगल-श्रुति छबि-धाम॥7॥

हैं कपोल सरस-गुलाब-प्रसून से उत्फुल्ल।
दृग-विकासक दिव्य-वैभव कलित-ललित-निकाम॥8॥

उच्चता है प्रकट करती चित्त की, रह उच्च।
श्वास रक्षण में निरत बन नासिका निष्काम॥9॥

अधर हैं आरक्त उनमें है भरी अनुरक्ति।
मधुर-रस हैं बरसते रहते वचन अविराम॥10॥
 
दन्त-पंक्ति अमूल्य-मुक्तावलि-सदृश है दिव्य।
जो चमकते हैं सदा कर चमत्कारक काम॥11॥

बदन है अरविन्द-सुन्दर इन्दु सी है कान्ति।
मुदृ-हँसी है बरसती रहती सुधा वसु-याम॥12॥

है कपोत समान कंठ परन्तु है वह कम्बु।
वरद बनते हैं सुने जिसका सुरव विधि बाम॥13॥

है सुपुष्ट विशाल वक्षस्थल प्रशंशित पूत।
दिव समान शरीर में जो है अमर आराम॥14॥

विपुल-बल अवलम्ब हैं आजानु-विलसित बाहु।
बहु-विभव-आधार हैं जिनके विशद-गुण-ग्राम॥15॥

है उदात्त-प्रवृत्ति-मय है न्यूनता की पूर्ति।
भर सरसता से ग्रहण कर उदर अद्भुत नाम॥16॥

है सरोरुह सा रुचिर है भक्त-जन-सर्वस्व।
है पुनीत-प्रगति-निलय पद-मूर्तिमन्त-प्रणाम॥17॥
 
लोक मोहन हैं तथा हैं मंजुता अवलम्ब।
कोटिश:-कन्दर्प से कमनीयतम हैं राम॥18॥14॥