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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तदश सर्ग / पृष्ठ १

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सप्तदश सर्ग : जन-स्थान
छन्द : तिलोकी

पहन हरित-परिधान प्रभूत-प्रफुल्ल हो।
ऊँचे उठ जो रहे व्योम को चूमते॥
ऐसे बहुश:- विटप-वृन्द अवलोकते।
जन-स्थान में रघुकुल-रवि थे घूमते॥1॥

थी सम्मुख कोसों तक फैली छबिमयी।
विविध-तृणावलि-कुसुमावलि-लसिता-धरा॥
रंग-बिरंगी-ललित-लतिकायें तथा।
जड़ी-बूटियों से था सारा-वन भरा॥2॥

दूर क्षितिज के निकट असित-घन-खंड से।
विन्धयाचल के विविध-शिखर थे दीखते॥
बैठ भुवन-व्यापिनी-दिग्वधू-गोद में।
प्रकृति-छटा अंकित करना थे सीखते॥3॥

हो सकता है पत्थर का उर भी द्रवित।
पर्वत का तन भी पानी बन है बहा॥
मेरु-प्रस्रवण मूर्तिमन्त-प्रस्रवण बन।
यह कौतुक था वसुधा को दिखला रहा॥4॥

खेल रही थी रवि-किरणावलि को लिये।
विपुल-विटप-छाया से बनी हरी-भरी॥
थी उत्ताल-तरंगावलि से उमगती।
प्रवाहिता हो गदगद बन गोदावरी॥5॥

कभी केलि करते उड़ते फिरते कभी।
तरु पर बैठे विहग-वृन्द थे बोलते॥
कभी फुदकते कभी कुतरते फल रहे।
कभी मंदगति से भू पर थे डोलते॥6॥

कहीं सिंहिनी सहित सिंह था घूमता।
गरजे वन में जाता था भर भूमि-भय।
दिखलाते थे कोमल-तृण चरते कहीं।
कहीं छलाँगें भरते मिलते मृग-निचय॥7॥

द्रुम-शाखा तोड़ते मसलते तृणों को।
लिये हस्तिनी का समूह थे घूमते॥
मस्तक-मद से आमोदित कर ओक को।
कहीं मत्त-गज बन प्रमत्त थे झूमते॥8॥

कभी किलकिलाते थे दाँत निकाल कर।
कभी हिलाकर डालें फल थे खा रहे॥
कहीं कूद ऑंखें मटका भौंहें नचा।
कपि-समूह थे निज-कपिता दिखला रहे॥9॥

खग-कलरव या पशु-विशेष के नाद से।
कभी-कभी वह होती रही निनादिता॥
सन्नाटा वन-अवनी में सर्वत्र था।
पूरी-निर्जनता थी उसमें व्यापिता॥10॥

इधर-उधर खोजते हुए शंबूक को।
पंचवटी के पंच-वटों के सामने॥
जब पहुँचे उस समय अतीत-स्मृति हुए।
लिया कलेजा थाम लोक-अभिराम ने॥11॥

पंचवटी प्राचीन-चित्र अंकित हुए।
हृदय-पटल पर, आकुलता चित्रित हुई॥
मर्म-वेदना लगी मर्म को बेधने।
चुभने लगी कलेजे में मानो सुई॥12॥

हरे-भरे तरु हरा-भरा करते न थे।
उनमें भरी हुई दिखलाती थी व्यथा॥
खग-कलरव में कलरवता मिलती न थी।
बोल-बोल वे कहते थे दुख की कथा॥13॥

लतिकायें थीं बड़ी-बलायें बन गईं।
हिल-हिल कर वे दिल को देती थीं हिला॥
कलिकायें निज कला दिखा सकती न थीं।
जी की कली नहीं सकती थीं वे खिला॥14॥

शूल के जनक से वे होते ज्ञात थे।
फूल देखकर चित्त भूल पाता न था॥
देख तितिलियों को उठते थे तिलमिला।
भौरों का गुंजार उन्हें भाता न था॥15॥

जिस प्रस्रवण-अचल-लीलाओं के लिए।
लालायिता सदा रहती थी लालसा॥
वह उस भग्न-हृदय सा होता ज्ञात था।
जिसे पड़ा हो सर्व-सुखों का काल सा॥16॥

कल निनादित-केलिरता-गोदावरी।
बनती रहती थी जो मुग्धकरी-बड़ी॥
दिखलाती थी उस वियोग-विधुरा समा।
बहा बहा ऑंसू जो भू पर हो पड़ी॥17॥

फिर वह यह सोचने लगे तरुओं-तले।
प्रिया-उपस्थिति के कारण जो सुख मिला॥
मेरे अन्तस्तल सरवर में उन दिनों।
जैसा वर-विनोद का वारिज था खिला॥18॥

रत्न-विमण्डित राजभवन के मध्य भी।
उनकी अनुपस्थिति में वह सुख है कहाँ॥
न तो वहाँ वैसा आनन्द-विकास है।
न तो अलौकिक-रस ही बहता है वहाँ॥19॥

ए पाँचों वट भी कम सुन्दर हैं नहीं।
अति-उत्तम इनके भी दल, फल फूल हैं॥
छाया भी है सुखदा किन्तु प्रिया-बिना।
वे मेरे अन्तस्तल के प्रतिकूल हैं॥20॥