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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तदश सर्ग / पृष्ठ ३

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यदि प्रसन्न-चित से मेरी बातें समझ।
वे कुलपति के आश्रम में जातीं नहीं॥
वहाँ त्याग की मूर्ति दया की पूर्ति बन।
जो निज दिव्य-गुणों को दिखलातीं नहीं॥41॥

जो घबरातीं विरह-व्यथायें सोचकर।
मम-उत्तरदायित्व समझ पातीं नहीं॥
जो सुख-वांछा अन्तस्तल में व्यापती।
जो कर्तव्य-परायणता भाती नहीं॥42॥

तो अनर्थ होता मिट जाते बहु-सदन।
उनका सुख बन जाता बहुतों का असुख॥
उनका हित कर देता कितनों का अहित।
उनका मुख हो जाता भवहित से विमुख॥43॥

यह होता मानवता से मुँह मोड़ना।
यह होती पशुता जो है अति-निन्दिता॥
ऐसा कर वे च्युत हो जातीं स्वपद से।
कभी नहीं होतीं इतनी अभिनन्दिता॥44॥

है प्रधानता आत्मसुखों की विश्व में।
किन्तु महत्ता आत्म त्याग की है अधिक॥
जगती में है किसे स्वार्थ प्यारा नहीं।
वर नर हैं परमार्थ-पंथ के ही पथिक॥45॥

स्वार्थ-सिध्दि या आत्म-सुखों की कामना।
प्रकृति-सिध्द है स्वाभाविक है सर्वथा॥
किन्तु लोकहित, भवहित के अविरोध से।
अकर्तव्य बन जायेगी वह अन्यथा॥46॥

इन बातों को सोच जनक-नन्दिनी की।
तपोभूमि की त्यागमयी शुचि-साधना॥
लोकोत्तर है वह सफला भी हुई है।
वर परार्थ की है अनुपम-अराधना॥47॥

रही बात उस द्विदश-वात्सरिक विरह की।
जिसे उन्होंने है संयत-चित से सहा॥
उसकी अतिशय-पीड़ा है, पर कब नहीं।
बहु-संकट-संकुल परार्थ का पथ रहा॥48॥

अन्य के लिए आत्म-सुखों का त्यागना।
निज हित की पर-हित निमित्त अवहेलना॥
देश, जाति या लोक-भलाई के लिए।
लगा लगा कर दाँव जान पर खेलना॥49॥

अति-दुस्तर है, है बहु-संकट-आकलित।
पर सत्पथ में उनका करना सामना॥
और आत्मबल से उनपर पाना विजय।
है मानवता की कमनीया-कामना॥50॥

जिसका पथ-कण्टक संकट बनता नहीं।
भवहित-रत हो जो न आपदा से डरा॥
सत्पथ में जो पवि को गिनता है कुसुम।
उसे लाभ कर धन्या बनती है धरा॥51॥

प्रिया-रहित हो अल्प व्यथित मैं नहीं हूँ।
पर कर्तव्यों से च्युत हो पाया नहीं॥
इसी तरह हैं कृत्यरता जनकांगजा।
काया जैसी क्यों होगी छाया नहीं॥52॥

हाँ इसका है खेद परिस्थिति क्यों बनी-
ऐसी जो सामने आपदा आ गई॥
यह विधान विधि का है नियति-रहस्य है।
कब न विवशता मनु-सुत को इससे हुई॥53॥

इस प्रकार जब स्वाभाविकता पर हुए।
धीर-धुरंधर-राम आत्म-बल से जयी॥
उसी समय वनदेवी आकर सामने॥
खड़ी हो गयी जो थीं विपुल व्यथामयी॥54॥

उन्हें देखकर रघुकुल पुंगव ने कहा।
कृपा हुई यदि देवि! आप आयीं यहाँ॥
वनदेवी ने स्वागत कर सविनय कहा।
आप पधारें, रहा भाग्य ऐसा कहाँ॥55॥

किन्तु खिन्न मैं देख रही हूँ आपको।
आह! क्या जनकजा की सुधि है हो गई॥
कहूँ तो कहूँ क्या उह! मेरे हृदय में।
आत्रेयी हैं बीज व्यथा के बो गई॥56॥

जनकनन्दिनी जैसी सरला कोमला।
परम-सहृदया उदारता-आपूरिता॥
दयामयी हित-भरिता पर-दुख-कातरा॥
करुणा-वरुणालया अवैध-विदूरिता॥57॥

मैंने अवनी में अब तक देखी नहीं।
वे मनोज्ञता-मानवता की मूर्ति हैं॥
भरी हुई है उनसे भवहित-कारिता।
पति-परायणा हैं पातिव्रत-पूर्ति हैं॥58॥

आप कहीं जाते, आने में देर कुछ-
हो जाती तो चित्त को न थीं रोकती॥
इतनी आकुल वे होती थीं उस समय।
ऑंखें पल-पल थीं पथ को अवलोकती॥59॥

किसी समय जब जाती उनके पास मैं।
यही देखती वे सेवा में हैं लगी॥
आप सो रहे हैं वे करती हैं व्यंजन।
या अनुरंजन की रंगत में हैं रँगी॥60॥